tag:blogger.com,1999:blog-75206801629028357412024-03-04T23:26:54.862-08:00कोई फर्क नहीं अलबत्ता...महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.comBlogger12125tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-57503703358503252542009-01-20T10:08:00.000-08:002009-01-20T22:20:39.134-08:00गधा, बंदर या चूहा होगा राष्ट्रीय पशु!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRyNrDQC4Wz5QKrjCeAAwonWcku13dcZNunF4HvNJAGcW2AZLj2n1qOiZNpHbDiwaHQBCMnoD_uuSJOC_pFvh80BGKLrE7rn7n2j2RP5hMOyALEacG_lTiz52pxtAg223BJfrv2U7bbUY/s1600-h/mp_Tiger.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5293443200224012850" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 298px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRyNrDQC4Wz5QKrjCeAAwonWcku13dcZNunF4HvNJAGcW2AZLj2n1qOiZNpHbDiwaHQBCMnoD_uuSJOC_pFvh80BGKLrE7rn7n2j2RP5hMOyALEacG_lTiz52pxtAg223BJfrv2U7bbUY/s320/mp_Tiger.jpg" border="0" /></a><br /><div><strong>हमारा राष्ट्रीय पशु कौन?</strong> बाघ... जी नहीं, यह जवाब बदलने जा रहा है। जैसे एक समय में बबर शेर हमारा राष्ट्रीय पशु हुआ करता था, वैसे ही अब बाघ भी पूर्व राष्ट्रीय पशुओं की सूची में टंगने जा रहा है। और दिल थाम लीजिए... बाघ को वीआरएस देकर उसकी कुर्सी हथियाने के लिए गधे, बंदर, चूहे और बकरी के बीच कांटे की टक्कर है।<br /><br />20वीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप से <strong>39 हजार बाघ विलुप्त</strong> हो चुके हैं। हाल ही में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा कराई गई गणना से खुलासा हुआ है कि मात्र पिछले <strong>छह साल में ही भारत में बाघों की 50 फीसदी संख्या कम</strong> हो चुकी है। इनकी संख्या एक हजार से भी कम बची है। <strong>अकेले मध्य प्रदेश में 65 प्रतिशत बाघ धरती से विलुप्त</strong> हो गए हैं। यहां के जंगलों और संरक्षित वन क्षेत्रों में सिर्फ 296 बाघ ही बचे हैं। जबकि कुछ समय पहले तक यह आंकडा संख्या 7 सौ था। राजस्थान में 100-100 से भी कम बाघ बचे हैं।<br /><br />इन भयावह आंकड़ों को देखते हुए नए राष्ट्रीय पशु की खोज के लिए यह अभियान शुरू होने जा रहा है, जिसमें देश के नागरिकों को इन चारों पशुओं यानी गधे, बंदर, बकरी और चूहे में से किसी एक को राष्ट्रीय पशु के रूप में चुनना होगा। इसके लिए आपको न्यू नेशनल एनीमल डॉट कॉम पर जाकर अपने पसंदीदा पशु के पक्ष में वोट डालना होगा। सुनने में यह थोड़ा अजीब लग सकता है, लेकिन वन्य जीव जंतु संरक्षण क्षेत्र में कार्यरत प्रतिष्ठित पत्रिका सेंक्च्यूरी एशिया ने राष्ट्रीय पशु बाघ को विलुप्त होने से बचाने के लिए यह व्यंग्यात्मक अभियान शुरू करने का फैसला किया है। उपरोक्त साइट पर एक संदेश के साथ चारों पशुओं के चित्र भी उपलब्ध कराए गए हैं। ऑनलाइन वोटिंग के साथ ही इस वेबसाइट से ऑनलाइन याचिका भी दाखिल की जा सकती हैं, जिन्हें बाद में सेंक्च्यूरी एशिया प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजेगा और साथ ही प्रधानमंत्री से इस दिशा में ठोस कदम उठाने की अपील की जाएगी। कोई गधा या चूहा कैसे बाघ की जगह ले सकता है, इसी विडंबना की ओर लोगों का ध्यान दिलाया जाएगा। जितने अधिक वोट मिलेंगे, उतना ही बाघ की दयनीय हालत की ओर देश का ध्यान जाएगा।<br /><br />यह एक व्यंग्यात्मक लेकिन गंभीर प्रयास है, जिसमें परोक्ष रूप से सवाल उठाने की कोशिश की गई है कि यदि बाघों का शिकार वनों का विलुप्त होना और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव इसी प्रकार जारी रहा तो बाघ सिर्फ किस्से-कहानियों में ही मिलेंगे।<br /><br />वैसे बाघ को देश का राष्ट्रीय गौरव मानने वाले लोगों को इस अभियान से परेशान नहीं होना चाहिए। यह ऑनलाइन अभियान असल में बाघ से उसका राष्ट्रीय पशु का खिताब नहीं छीनने जा रहा है, बल्कि यह विषय की गंभीरता की ओर व्यापक पैमाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का <a href="http://in.youtube.com/watch?v=sfLNKw7Yny4" target="_blank">एक कटाक्ष</a> आधारित उपाय है।<br /><br />कुल मिलाकर शक्ति का प्रतीक और बहादुरी की मिसाल माना जाने वाला जंगल का राजा बाघ आज अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई में हमारा साथ चाहता है। अंतिम लड़ाई इसलिए क्योंकि ताजा अनुमान के मुताबिक आज भारत में बाघों की संख्या केवल 1000 के लगभग रह गई है। अब घटते शिकार व सिकुड़ते वन्य क्षेत्र के कारण खाने की तलाश में हिंसक पशु गाँवों की ओर आ जाते हैं और मवेशियों का शिकार करते हैं, नतीजतन बाघों और इनसानों की बढ़ती मुलाकातें, जिनमें अकसर कोई जान जाती है या तो किसी इनसान की या किसी बाघ की।<br /><br />अब सवाल यह है कि आखिर इस होने वाली तबाही को कैसे रोका जाए। जंगल और वन्य जीवों को बचाना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है। इसका बीड़ा हर किसी को उठाना पड़ेगा। कब तक हम सिस्टम और नेताओं को दोष देते रहेंगे। आखिर सिस्टम हममें से कुछ लोगो ने ही बनाया है और नेता भी आम जनता से चुने जाते हैं। सबसे पहले तो जंगल और उसमें रहने वाले प्राणियों के बारे में लोगों को जागरूक करना पड़ेगा। अगर सभी लोगों को इस समस्या के दूरगामी परिणाम पता होंगे तो निश्चित रूप से राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों में इस मुद्दे को भी प्रमुखता से स्थान मिलेगा और सत्ता में आने पर कोई ठोस कदम उठाया जाएगा।</div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-7925988680503932062008-11-18T01:39:00.000-08:002008-11-18T01:55:08.981-08:00शांति के कबूतर को जम्हूरियत का चुग्गा!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhOusM-VKPXntyYPBd5FE6MFTKhCK8k1IE27Su0HmVx6dYNR_U-DK_xdMMVFbiQE5j48J6GPkLiJherZU6JPOXVZoEs0eUlKEjcWwsXa-I1SjEpNc3YqA3t6ZNRIM4fJJlHH6F3iIzjeI/s1600-h/jammu-kashmir1.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5269931442724139954" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhOusM-VKPXntyYPBd5FE6MFTKhCK8k1IE27Su0HmVx6dYNR_U-DK_xdMMVFbiQE5j48J6GPkLiJherZU6JPOXVZoEs0eUlKEjcWwsXa-I1SjEpNc3YqA3t6ZNRIM4fJJlHH6F3iIzjeI/s320/jammu-kashmir1.jpg" border="0" /></a> <strong>जम्मू-कश्मीर</strong> घाटी में जम्हूरियत की बयार जमकर बह रही है। लेकिन देखना यह होगा कि <strong>जम्हूरियत का यह चुग्गा</strong> शांति कपोतों को घाटी की फिजा में मंडराने के लिए आकर्षित करने में सफल होगा या फिर चुग्गे में मिला <strong>राजनीतिक जहर</strong> अवाम के विश्वास और <strong>शांति कपोतों का बेदर्दी से खून कर डालेगा</strong>?<br /><br /><div><strong>यह संशय</strong> इसलिए है क्योंकि हमारे <strong>शीर्ष नेताओं की शांतिदूत बनने की लपलपाती महत्वाकांक्षा का खामियाजा हमेशा घाटी ने अपनी शांति खोकर भुगता है</strong>। जवाहरलाल नेहरू से चला आ रहा यह सिलसिला धारा 370 हटाने, कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने, सीमा पार आकंतवादी ठिकानों को नष्ट करने के वादे कर भूलने वाले अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहनसिंह तक बरकरार है। बार-बार एकतरफा युद्धविराम कर पहले <strong>घाटी को फौजियों की कत्लगाह</strong> बनाया गया फिर <strong>अवाम को अशांति के खौलते कड़ाह में डाल दिया गया।</strong> अमरनाथ भूमि आवंटन से भड़की हिंसा के बाद तो शांति को भी मानो, अस्थमा हो गया था। </div><br /><div><strong>जैसे-तैसे </strong>मतदान की तारीख पास आई। <strong>अलगाववादी और बर्फबारी दोनों ने भी ‘जहां इलेक्शन वहां चलो’ का नारा दिया।</strong> इसके बावजूद <strong>जम्हूरियत की कांगड़ी आम अवाम के दिलों में थी और वही उनके जोशो-जूनूं को गर्माहट दे रही थी</strong>। जम्मू-कश्मीर का अवाम अपने लोकतांत्रिक हक को अलगाववादियों के कहने पर छोड़ने को तैयार नहीं है, यह बात पहले चरण में ही साबित हो गई जब दस सीटों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से औसतन 64 फीसदी वोट पड़े। </div><div></div><strong><span class=""></span></strong><br /><strong>कारगिल</strong> में माइनस चार तो जंस्कार में माइनस 11 डिग्री तापमान होते हुए भी इस <strong>लोकतांत्रिक उत्सव</strong> को मनाने सभी निकल पड़े। सिने से कांगड़ी चिपटाए लोग अपनी अंगुली पर लोकतंत्र की स्याही लगवाकर ही लौटे। गरेज विधानसभा क्षेत्र में नियंत्रण रेखा से एक किलोमीटर दूर बने मतदान केंद्र तक पहुंचने के लिए 20 मतदाताओं के एक जत्थे ने बर्फ और पहाड़ी जंगलों <span class=""><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjK1BbOa3An7QlWFRwdYU0qEIR-I36r38_lAxGZAHIvyOE_cZvLXF-PETojJ-hpr8Ge4lZFdUfFsEG-23HAtvPRmtApa4LFA43qEKIBisjpxRHLMNns4YwyvOiersfQPBJDqjR2ljZzz_g/s1600-h/jammu-kashmir2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5269932019487285698" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 209px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjK1BbOa3An7QlWFRwdYU0qEIR-I36r38_lAxGZAHIvyOE_cZvLXF-PETojJ-hpr8Ge4lZFdUfFsEG-23HAtvPRmtApa4LFA43qEKIBisjpxRHLMNns4YwyvOiersfQPBJDqjR2ljZzz_g/s320/jammu-kashmir2.jpg" border="0" /></a>से</span> घिरा पांच किलोमीटर लंबा दुर्गम रास्ता तय किया। <strong>और गर्व करने लायक बात यह थी कि इस दल में ज्यादातर महिलाएं थीं।</strong><br /><div><br /><strong>अब</strong> आखिरी चरण 24 दिसंबर को है और अलगाववादियों के ‘लाल चौक चलो’ के आह्वान को भी अवाम इसी जुनून के साथ नाकाम करे। जम्हूरियत में ही जनता की जीत है- इस तथ्य को स्थापित करना होगा। <strong>अवाम यह बता दे कि घाटी में अब लाशों की फसल नहीं काटने दी जाएगी। यहां फलेगी शांति और फूलेगा भाईचारा।</strong> <strong><span style="color:#006600;">शायद तभी दूसरा स्वर्ग फिर से अस्तित्व में आ पाए।</span></strong></div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-14713238043281824592008-11-17T13:53:00.000-08:002008-11-17T14:10:18.696-08:00मौत का ताबूत फिर आया अपनी वाली पर!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKQTNip77jM27jNnJHBYuOqB6iA33KjGv5zWTAjD8mXIBItmiNk8Pkh6qBqMQl59wCxdBmmSAALPDH3tNaubWAeF0GCZfImgL16Z_X440d9AtE1YVKnIJY72CvtHC-pU7XtbfY_2XerTM/s1600-h/Mig-27_Fighter%5B1%5D.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5269750568596971490" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 223px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKQTNip77jM27jNnJHBYuOqB6iA33KjGv5zWTAjD8mXIBItmiNk8Pkh6qBqMQl59wCxdBmmSAALPDH3tNaubWAeF0GCZfImgL16Z_X440d9AtE1YVKnIJY72CvtHC-pU7XtbfY_2XerTM/s320/Mig-27_Fighter%5B1%5D.jpg" border="0" /></a><br /><br /><div><strong>एक बार फिर</strong> <span style="color:#ff9900;"><strong>उड़ता-फिरता अजहदा</strong></span> यानी <span style="color:#ff0000;"><strong>मौत का ताबूत</strong></span> यानी <strong><span style="color:#009900;">मिग विमान</span></strong> अपनी वाली पर आ गया। वो तो भला हो पायलटों का, जो कूद-कूद कर जान बचाना सीख गए हैं और आम जनता का, जो मिग को उड़ान भरते देख ही उलटी दिशा में उड़ान भर लेती है।<br /><br /><strong>भारतीय वायुसेना का प्रशिक्षक विमान मिग-27</strong> सोमवार को अपने पायलटों और क्षेत्रवासियों की <strong>अलर्टनेस का प्रशिक्षण करने निकला</strong>। इस बार निशाने पर थे विंग कमांडर सिसौदिया, फ्लाइट लेफ्टिनेंट कार्तिक और पश्चिम बंगाल में अलीपुरद्वार के नरारथली क्षेत्रवासी। जलपाईगुड़ी जिले के हाशिम आरा एअर बेस से उड़ान भरकर जब वरिष्ठ विमान चालक जूनियर को प्रशिक्षण दे रहा था तो <strong>मिग मियां मक्कारी पर उतर आए</strong>। उड़ते-उड़ते अचानक झटका खाया, आउट ऑफ कंट्रोल हुए और आग उगलते हुए चल पड़े धरा को चूमने औंधे मुंह। चालक और सह चालक के दिमाग में फौरन मिग के सहोदरों की कारगुजारियों के कफन में लिपटे अपने दोस्तों शहादत घूमने लगी। उन्होंने आव देखा न ताव, तत्काल कूद पड़े। सही भी है- <strong>राख का ढेर बनने से तो अच्छा है कि कुछ हड्डियां ही चूरा हो जाएं।</strong> इधर, आग का गोला बना मिग-27 जमीन की तरफ बढ़ता जा रहा था... भला हो नरारथला के उस कच्चे मकान का जिसने धधकते हुए बेकाबू उड़न ताबूत को थाम लिया। उसमें रहने वाले लोग हादसे के दौरान खेत में काम कर रहे थे। दो किलोमीटर तक विमान का मलबा बिखरा पाया गया। अब ब्लैक बॉक्स की तलाश की जा रही है ताकि सांप निकलने के बाद लकीर पीटी जा सके।<br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEij21lcFTZRNvnUUHQcnT5_smFhu_ys8m7VXTHJ9cMYB5ed3uNBo04Cgr0IyOroEQH_Xli7Cx9aQCWtZgiP4ur4nYsJuv1__ugL7-N5ZEkHWCLMii-ZKr2EOrz1Xilpgu8pLzXYZnqgiPI/s1600-h/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%97-2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5269751577492113074" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 170px; CURSOR: hand; HEIGHT: 137px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEij21lcFTZRNvnUUHQcnT5_smFhu_ys8m7VXTHJ9cMYB5ed3uNBo04Cgr0IyOroEQH_Xli7Cx9aQCWtZgiP4ur4nYsJuv1__ugL7-N5ZEkHWCLMii-ZKr2EOrz1Xilpgu8pLzXYZnqgiPI/s320/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%97-2.jpg" border="0" /></a><strong>अब तक</strong> मिग-21 दुर्घटनाओं के लिए कुख्यात रहा है लेकिन मिग-23, मिग-27 और मिग-29 भी अपने<strong> बड़े भाई की राह पर</strong> चल पड़े हैं। सेना के बेड़े में शामिल जगुआर, मिराज-2000 और आईएल-76 भी कभी-कभी मिग बिरादरी की नकल करने की जिद करते नजर आते हैं। इस तरह सभी मिलकर दुनिया की <strong>चौथी सबसे बड़ी भारतीय वायुसेना की हवा निकालने में जुटे हुए हैं</strong>। गौरतलब है कि उत्तरी बंगाल के दूआर्स क्षेत्र में इस साल मिग विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने का यह तीसरा मामला है। सरकारी इतिहास की बात करें तो वर्ष <strong>1991 से 2008 के बीच करोड़ों डॉलर मूल्य के लगभग 300 मिग विमान दुर्घटनाग्रस्त हो चुके हैं, जबकि इनमें तक़रीबन 200 पायलटों समेत आम लोगों को भी जान गंवानी पड़ी</strong>।<br /><br /><strong>गैरसरकारी</strong> आंकड़ों पर जाएं तो अब तक <a href="http://aloktomar.com/?m=20080929" target_="'blank">भारत में मिग दुर्घटनाओं में 723 लोगों की जान जा चुकी है</a> और हर बार मिग कंपनी ने कहा है कि दुर्घटना पायलटों की गलती से हुई है क्योंकि भारतीय पायलटों को आधुनिक विमान उड़ाने की पूरी बुद्वि नहीं हैं। मिग कंपनी ने अब तक भारत में वायु सेना के भीतर होने वाली मिग विमान दुर्घटनाओं के सिलसिले में खुद कोई जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया हैं। उनका कहना है कि भारतीय पायलटों को इतने आधुनिक विमान उड़ाने ही नहीं आते।<br /><br /><strong>आखिर ऐसा क्या लाड़-प्यार है इस उड़न ताबूत से?</strong> क्यों इसे हर बार हमारे होनहार पायलटों और निरीह जनता को स्वाहा करने के लिए छोड़ दिया जाता है? कब तक दलाली की तराजू में लाशों का सौदा होता रहेगा? <strong><span style="color:#990000;">बेहतर हो कि वायुसेना इन सौतेले पूतों पर विश्वास करने के बजाय तेजस जैसे अपने सपूतों को सक्षम बनाने में ध्यान दे। </span></strong></div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-35484919898044128942008-11-15T12:20:00.000-08:002008-11-15T12:46:19.511-08:00लाचारगी के कंबल में ठिठुरती सर्वोच्च संस्था<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVVa2xWIAB97EQsDzvqtXigeJ70w12eCgvyoLUFq1O_DjXXQ3Iw_nPVdE57Mo7dkdFuqvrz_jarU7SRXLsSoxJ99-eK4s6gQsns0wb3bkN2lxB2ae3rJg8CbYEArjrJdhGlttzrECBr9Y/s1600-h/child.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5268986129148480882" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 214px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px; TEXT-ALIGN: left" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVVa2xWIAB97EQsDzvqtXigeJ70w12eCgvyoLUFq1O_DjXXQ3Iw_nPVdE57Mo7dkdFuqvrz_jarU7SRXLsSoxJ99-eK4s6gQsns0wb3bkN2lxB2ae3rJg8CbYEArjrJdhGlttzrECBr9Y/s320/child.bmp" border="0" /></a><strong><span style="color:#660000;">कानून</span></strong> की लंबी और अंधी सुरंगों में न्याय का रास्ता ढूंढ़ने के लिए <strong>अब भी कोई आस का दीपक</strong> यदि <strong>जला रखा है, तो उसे खुद ही फूंक मारकर बुझा लीजिए।</strong> कानून को अपनी जेब में रखकर घूमने वालों की यह जीत और <strong>न्याय की आस में खुद को तन, मन और धन से झोंक देने वालों की हार का एक नमूना फिर सामने आया</strong> है। अन्याय की बर्फबारी में न्याय की सर्वोच्च संस्था एक बार फिर लाचारगी का फटा-पैबंद लगा कंबल औढ़े कोने में पड़ी है। वह दुहाई दे रही है कि निजी अभियोजकों और जांच एजेंसियों ने अलाव ही नहीं जलाया।<br /><br /><strong>मध्यप्रदेश</strong> के भोपाल की शाहजहानाबाद जिला अदालत में <strong>10 जुलाई 1996 का दिन हमेशा के लिए इतिहास</strong> में दर्ज हो गया है। इसलिए नहीं कि अदालत परिसर में इस दिन खुलेआम गैंगवार हुआ था, बल्कि <strong>इसलिए कि इस खूनी खेल के सभी आरोपी सुप्रीम कोर्ट से बरी हो चुके हैं।</strong><br /><br /><strong>बरी क्यों हुए?</strong> यह जानना और भी जरूरी हो जाता है जबकि हाईकोर्ट 5 अप्रैल 2007 को आरोपी मुख्तार मलिक और आसिफ मामू को फांसी, रजी मलिक, मुन्ने पेंटर को उम्र कैद की सजा दे चुकी हो। इसकी <strong>बानगी सुप्रीम कोर्ट की बेचारगी में छिपी है-</strong> न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने अब अपने फैसले में कहा है कि <strong>इस्तगासा और जांच एजेंसी</strong> ही दोषी लोगों के सजा से बच जाने के जिम्मेदार हैं। ऐसा लगता है कि <strong>ये सभी अपराधियों से मिल गए हैं।</strong> ऐसी स्थिति में हमारे पास अभियुक्तों को बरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। न्यायाधीशों ने फिर स्पष्ट किया कि इस्तगासा इस हत्याकांड में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने में पूरी तरह विफल रहा है।<br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#ff0000;">अफसोस...</span></strong> अफसोस है कि जांच की खामियों और निजी अभियोजकों के असहयोगात्मक रवैये के कारण ही न्याय के मंदिर में दिन-दहाड़े तीन व्यक्तियों की हत्या करने वाले सजा के चंगुल से बच रहे हैं। <em>(सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अंश)</em><br /><br /><strong>मीडिया रहा ‘संजय’ के भरोसे<br /></strong>पूरे मामले को आरोपियों के वकील के हवाले से प्रदेश और राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने शान से छापा- गैंगवार के आरोपी बरी...। जैसे उन्हें भारत रत्न मिला हो। आरोपियों के वकील ने बताया कि किस तरह हाईकोर्ट ने फांसी और उम्रकैद दे दी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर, ऐतिहासिक फैसला दिया है। <strong>किसी ने यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर हाईकोर्ट का फैसला पलटने की नौबत क्यों आई?</strong> इस मामले में सिर्फ <a href="http://epaper.naidunia.com/epapermain.aspx" target="_blank"><strong>नईदुनिया</strong></a> का एंगल काबिल-ए-तारीफ है। यहां <strong>अनूप भटनागर</strong> ने खबर का फोकस ही इस पर रखा है कि क्यों सुप्रीम कोर्ट को फैसला बदलना पड़ा। आखिर क्यों न्याय की इस अंतिम सीढ़ी को अफसोस जताना पड़ा? जिन निजी अभियोजकों की मिलीभगत से आरोपी बरी हुए, उन्हें यहां कतई जगह नहीं दी गई है। ऐसे संगीन मौकों पर अपना मुंह शतुर्मुर्गों की तरह रेत में छिपा लेने से मीडिया को बचना होगा, भले ही चुनाव की आंधी क्यों न चल रही हो।<br /><br /><strong>बहरहाल,</strong> इस फैसले ने भले ही अनजाने में ही सही लेकिन यह तो बता ही दिया है कि कानून की सुरंग से होकर न्याय की मंजिल पाने में देर तो है ही अंधेर भी है।महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-9691546511552897582008-10-28T04:30:00.000-07:002008-10-28T04:58:09.695-07:00मुर्गी, शेर और श्वान!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEk3QROOO_GZw63uMJz0VP8mvZv8k2qhVtV7AD4C9gzxPVd-TcSt_gRYsH_J6Kgn9qNFgcOR-HmTMmhjIaaZIQBaACzrBqeu5p85hB5wqRYabEop368mPcjCjlI7vHaLsTZ1BTZ0nmejE/s1600-h/thakreraj.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5262172630465645874" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 210px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEk3QROOO_GZw63uMJz0VP8mvZv8k2qhVtV7AD4C9gzxPVd-TcSt_gRYsH_J6Kgn9qNFgcOR-HmTMmhjIaaZIQBaACzrBqeu5p85hB5wqRYabEop368mPcjCjlI7vHaLsTZ1BTZ0nmejE/s320/thakreraj.bmp" border="0" /></a><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEznHiVPExhFu5OhyphenhyphenZqWInjoOi8QSWTN-OaQNXBM5sOHSuZhJ9J8866zmjzk1L-Al9gnL_HdoewmOqpLcPFvlGnwM9zqqIxKMk0cxXnkP0pgkFdPOLtFrJ8X5F71IzOaeDZcFrwZ14NL0/s1600-h/thakreraj.bmp"></a><br /><div><strong>इस राज से उस राज तक कई राज <span class="">हैं...</span></strong><br /><br /><strong>इस राज</strong> को इसलिए गोलियों से भून डाला गया क्योंकि वह बिहार से आकर मुंबई में <strong>एक बस को अगवा</strong> करना चाहता था। लेकिन <strong>उस राज</strong> का क्या जो <strong>पूरी मुंबई को अगवा</strong> करना चाहता है? जो बीसीयों बार सार्वजनिक रूप से विषवमन कर चुका है कि मुंबई उसके बाप की है? उसके इस पारिवारिक बड़बोलेपन के कारण मुंबई <strong>आकंठ जातीयता के जहर</strong> में डूब चुका है। इस जहर से मरने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।<br /><br />कश्मीर से कन्याकुमारी तक <strong>हम एक हैं</strong> का दावा करने वाले <strong>इस देश में दो तरह के कानून </strong><span class=""><strong>हैं</strong>।</span> <strong>एक-</strong> सड़कों पर घिसटने वाले आम आदमी के लिए और <strong>दूसरा-</strong> वीआईपी के लिए। वीआईपी यानी वो- जो नेताजी हों, भाई-दादा हों, बिजनेसमैन हों या फिर जिनके बिस्तर में रूई की जगह रुपए भरे हों।<br /><br />दूसरी तरह की उच्च क्वालिटी वाले <strong>महापुरुष</strong> की अव्वल तो गिरफ्तारी होती नहीं, बहुत ही जरूरी हुआ तो गिरफ्तारी की रस्म अदायगी कर दी जाती है लेकिन उन्हें ले जाया जाता है- खाकी वर्दी वालों की बग्घी में सवार होकर जुलूस के रूप में। काले कोट वालों की भारी भरकम फौज उनके आगे-पीछे चलती है जिसका काम कानून की जर्जर दीवार में सेंधमारी करना है। कोई भी दांव न चले और इन्हें जेल जाना ही पड़ा तो फिर ऐसी व्यवस्था की जाती है कि <strong>मानो साहब यात्रा डॉट कॉम के हॉलीडे पैकेज पर जा रहे </strong><span class=""><strong>हों</strong>।</span> जेल को फाइव स्टार टच दिया जाता है लेकिन साहब को इससे भी संतोष नहीं होता तो पहली पेशी में ही उनकी जमानत हो जाती है या फिर वे हॉस्पिटल में आराम फरमाने चले जाते हैं। <strong>जेल से छूटते ही उनकी इज्जत और बढ़ जाती </strong><span class=""><strong>है</strong>।</span> कुशल क्षेम पूछने वालों का तांता लग जाता है।<br /><strong>और बेचारा आम आदमी?</strong> कई बार तो बिना कुछ किए-धरे ही उसे पुलिस धर लेती है। बिना एफआईआर दर्ज किए कई-कई दिन तक लॉपअप में रखा जाता है और बिना सर्फ लगाए धोबी-पछाड़ धुलाई होती है। घर का खाना और घरवालों से मिलना तो उसके लिए दिवास्वप्न है। उसकी पेशी पर पुलिस को तत्काल रिमांड मिल जाती है और इसके बाद तो पुलिस को थर्ड डिग्री का लायसेंस मिल जाता है। चाहे उसने जुर्म किया हो या नहीं, उसे कबूलना ही पड़ता है। वह इस लायक भी नहीं बचता कि हॉस्पिटल जा सके। समाज में उसकी और परिवार की इज्जत पर ऐसा दाग लग जाता है जिसे वो जिंदगी भर नहीं धो सकता। कुशल क्षेम पूछने की तो कोई हिम्मत करना नहीं, अलबत्ता ताने सुन-सुनकर उसके कान जरूर पक जाते हैं।<br /><br /><strong>पटना के राहुल राज की बात ही लें... </strong>वह <strong><a href="http://broadband.indiatimes.com/videoshow/3646262.cms" target="_blank">अपनी बात कहना चाहता था</a> </strong>तो उसे गोलियों से छलनी कर दिया गया। और <strong>मुंबई का राज जो हर रोज अपनी बातों से लोगों को छलनी कर रहा है</strong>, उसकी गर्दन नापने की बात पर मुंबई पुलिस को तो जैसे सन्निपात हो जाता है। दरअसल, राहुल राज उन <strong>लाखों लोगों का प्रतीक</strong> था जिन पर क्षेत्रीयता के आरोपों का गर्म लावा हर रोज डाला जा रहा है। <strong>अब वही लावा ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ा तो इसमें उसकी गलती कहां? </strong>मुख्य आरोपी तो लावा उंडेलने वाले हैं। <strong>लेकिन बिहारी राज का दुर्भाग्य कि वहीं के मुख्यमंत्री ने उसे मुर्गी की उपमा दे दी और मुंबइया राज को शेर माना जा रहा है।</strong> मुंबई <strong>पुलिस </strong>की भूमिका का अंदाज <strong>राज ठाकरे के साथ वाला फोटो </strong>देखकर लगाया जा सकता है।<br /><br />पूरे समाज की यही हालत है कि दौलत की चमक के आगे <strong>ऐसे वीआईपीज का हर ऐब भी हुनर लगता </strong><span class=""><strong>है</strong>।</span> बेहतर हो कि समाज और पुलिस को इतना ताकतवर बनाया जाए कि <strong>वो किसी आदमी की औकात को आंखों पर पट्टी बांधकर दौलत की तराजू में न </strong><span class=""><strong>तौले</strong>।</span> और बिहार के राज से मुंबई के राज तक कानून एक सा पेश आए। </div></div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-4403723278641655942008-10-21T10:39:00.000-07:002008-10-23T05:54:03.853-07:00आरी को काटने के लिए सूत की तलवार???<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2WV-4JWr68HIFmW-r_0gFmNxhfJu_5QXa0f3iILt2Fk-rvbr_tAgdvmgPJ3XXluZN64hq8YeFnVL65PCnuXR0Ta-jBHluqp8OHgbzj0OqdaM9YtlRy-97ldOlEK7qqjE65lgFyyj9afM/s1600-h/mumbai2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5259664819944145570" style="margin: 0px 10px 10px 0px; float: left;" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2WV-4JWr68HIFmW-r_0gFmNxhfJu_5QXa0f3iILt2Fk-rvbr_tAgdvmgPJ3XXluZN64hq8YeFnVL65PCnuXR0Ta-jBHluqp8OHgbzj0OqdaM9YtlRy-97ldOlEK7qqjE65lgFyyj9afM/s320/mumbai2.jpg" border="0" /></a><br /><div><strong>मुंबई </strong>के निवासी अपनी भागदौड़ भरी जिंदगी जी रहे थे कि तभी एक <a href="http://broadband.indiatimes.com/toishowvideo/3622039.cms" target="_blank"><strong>नए नाटक</strong> </a>ने उनकी जिंदगी दुश्वार बना दी। सुबह घर से निकलने में डर, तो शाम को वापस घर आते समय दहशतजदा माहौल। ऐसा सिर्फ <strong>एक सिरफिरी</strong> <strong>मानसिकता </strong>के चलते हुआ, जिसे रोक पाने में <strong>पूरा तंत्र जानबूझकर असफल</strong> रहा। जो भी प्रयास हुए वे सिर्फ <strong>आरी को काटने के लिए सूत की तलवार</strong> के समान ही थे।<br /></div><br /><div>एक जमाना था जब मुंबई में <strong>मातुश्री बिल्डिंग कानून से भी ऊंची</strong> थी। यहां से पाइप से छल्ले उड़ाते शेर के मुंह से निकलती दहाड़ गैर मराठियों को दहला देती थी। <strong>समय बदला...</strong> लेकिन खुद की अहमियत बनाए रखने के लिए लोगों को आतंकित करने का <strong>तरीका वही पाशविक रहा।</strong> अब की बार बिना स्टीयरिंग वाली बीएमडब्ल्यू कार पर भतीजा सवार है। उसकी जबान में न ब्रेक शू हैं और न ही गले में सायलेंसर। <strong>वह भी आग उगल कर और अंगारे ग्रहण कर चाचा के अतीत को बिंदास जीना चाहता है। </strong><br /><br /><strong>कबीर</strong> बरसों पहले कह गए थे- <strong>जात न पूछो साधु की...</strong> तब उन्हें यह पता नहीं था कि चंद्रयान भेजने और परमाणु करार के दौर में जब भारत होगा तब भी उनका यह कथन प्रासंगिक होगा। समाज में हजार तरह के समाज सुधारक हुए जिन्होंने जन्म से जाति निर्धारण का विरोध किया लेकिन ये विष बेल फलती फूलती रही और आज विशाल वटवृक्ष में बदल चुकी है। वोट बैंक बनाने की घृणित राजनीतिक लालसा ने इसे और विकराल रूप दे दिया है। इसकी शाखों पर तमाम तरह के स्मगलर, माफिया, डॉन और गुंडे आराम फरमा रहे हैं। <strong>और ये जात ‘भाई’ मुंबई को अपनी बपौती समझने लगे।</strong> अब इनके इस भाईचारे का प्रभाव पूरी इन्सानियत भुगतने को मजबूर है।<br /><br />जिन युवाअों में कभी समाज को बदल डालने की आग धधका करती थी, वे जाति अरण्य में विक्रम की तरह अपने-अपने समाजों की लाश कंधों पर उठाए भटक रहे हैं। अब इन नौजवानों से ये शव कोई दूसरा दयानंद या लोहिया ही छीन सकता है। पर तब तक हो सकता है बहुत देर हो जाए...</div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-8129946607220194772008-10-19T03:56:00.000-07:002008-10-19T04:25:38.010-07:00विदेशी कूड़े से मेरे देश की धरती को बंजर क्यों बनाते हो?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikQ3lXRk5_OGGbWFOoke7OUX8WHRpk6Nu8KZIo-ZhZ60FjFYJ5_ejLjyUknH7ob_7U_ZIF7ZpPkDWBTr_Du8GCKDzZdbezxf6WPzydzBVPfzVS7TCQYhRrRjDI_klPyfLTLknEHIwzwBs/s1600-h/image.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258823188612571858" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikQ3lXRk5_OGGbWFOoke7OUX8WHRpk6Nu8KZIo-ZhZ60FjFYJ5_ejLjyUknH7ob_7U_ZIF7ZpPkDWBTr_Du8GCKDzZdbezxf6WPzydzBVPfzVS7TCQYhRrRjDI_klPyfLTLknEHIwzwBs/s320/image.jpg" border="0" /></a><br /><div></div><br /><p><strong><span style="color:#990000;">लिव इन v/s करवा चौथ : चौथी किस्त</span></strong></p><br /><p><strong>लिव-इन पर बहस जारी है...</strong> दरअसल हमारा मूल विरोध ही उस पुरुष प्रधान मानसिकता को लेकर है जो महिलाअों का हक मार कर जबरन लिव-इन जैसे दलदल में फंसा रही है। इसकी आड़ में कुछ लोग विदेशी कूड़ा कल्चर को, सोना उगलने वाली धरती पर डंप कर, इसे बंजर बनाना चाहते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि तथाकथित नारीवाद के पैरोकार भी लिव-इन के हिमायती बने हुए हैं। इसी का विरोध है, बस। </p><br /><p><strong>लिव-इन के नकारात्मक पहलू में से एक पर गौर करें-</strong> ऐसे रिश्तों से अगर कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसका क्या होगा। क्योंकि यह रिश्ता ऐसा है कि इसमें कभी भी पति-पत्नि अलग हो सकते हैं। ऐसे में <strong>बच्चे के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा</strong>, जबकि सामान्य शादी में जिम्मेदारी तय होती है। दूसरा और महत्वपूर्ण मसला यह है कि- लिव-इन तात्कालिक उपचार है... शुरुआत से ही मानसिकता बना ली जाती है कि अलग होना है। यानी <strong>स्त्री के जीवन से खिलवाड़ के रास्ता पहले ही निकाल लिया गया है</strong> और इसे कांक्रीट का बनाने के प्रयास शुरू हो गए हैं।<br /><br /><strong>इसका आशय</strong> यह कतई नहीं कि स्त्री को हर हाल में पुरुष के साथ ही रहना होगा। वह जीवन जिए, लेकिन <strong>पुरुष की लिव-इन बैसाखी</strong> की जरूरत उसे क्यों पड़ना चाहिए? नारी तो शक्ति स्वरूपा है, और परिवार उसका संबल। <strong>पारिवारिक ढांचे की नींव में लिव-इन का मट्ठा</strong> डालने वालों को समय रहते पहचानना ही होगा।<br /><span style="color:#cc6600;"><strong></strong></span></p><br /><p><span style="color:#cc6600;"><strong>इनकी रगों में है रवानी</strong><br /></span><strong>सुजाताजी</strong> की टिप्पणी <strong><a href="http://sandoftheeye.blogspot.com/">(अगर मैं मंदिर नहीं जाती तो...)</a></strong> पर <a href="http://www.blogger.com/profile/04825484506335597800"><strong>सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी</strong> </a>ने लिखा है-<br />आदरणीया सुजाता जी, मेरे खयाल से आपकी प्रतिक्रियात्मक पोस्ट कदाचित् मूल पोस्ट को <strong>जल्दबाजी में पढ़ने के कारण इतनी तल्ख हो गयी है।</strong> आप द्वारा दी गयी लिंक से ही मैं पहली बार इस ब्लॉग पर गया। उस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगा कि लेखक की मान्यता वैसी है जैसा आपने समझ लिया। करवा चौथ को पूरे मनोयोग से व्रत करने वाली ‘परम्परा-प्रिय सुहागिनों’ और लिव-इन सम्बन्धों में सहज रहने वाली ‘अविवाहित आधुनिकाओं’ के बीच जो कण्ट्रास्ट है, सिर्फ़ उसी को यहाँ रेखांकित किया गया है। इन दो paradigms के इतर भी एक बहुत बड़ी दुनिया है जिसको नकारा नहीं गया है। जबकि आप का गुस्सा इसी शंका से फूट पड़ा है।यहाँ लेखक ने दो ‘ध्रुवों’ के बीच तुलना दिखाने की कोशिश की है जिसके बीच में एक बहुत बड़ा मध्यमार्ग भी पड़ता है। इससे लेखक ने कहीं इन्कार नहीं किया है, लेकिन आपने यह समझ लिया कि लेखक ने पूरे नारी समाज को इन्ही दो श्रेणियों में बाँट दिया है। <strong>खेद के साथ कहना चाहूंगा</strong> कि इसी <strong>शंकालु सोच</strong> के कारण आज का <strong>तथाकथित नारीवाद हँसी का पात्र बन रहा है</strong>; जो वस्तुतः ‘पुरुषविरोधवाद’ से बाहर नहीं निकल पा रहा है।<br /></p><br /><p><strong><span style="color:#990000;">सुजाता जी ये आप ही के शब्द हैं ना?<br /></span><a href="http://murakhkagyan.blogspot.com/">ज्ञान</a></strong> जी ने बड़े ही ज्ञान की बात कही है-<br />सुजाता जी, मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ, टिप्पणी करने से।जब कोई अपनी पत्नी (या कथित अन्दर-रहने वाली) से कहे कि-मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ,-इसके बावज़ूद अगर तुमने बेवफ़ाई की तो,-मैं तुम्हें जान से मार दूँगा!तो वो क्या करेगी?<br />A. खुश होगी कि वह उसे बहुत चाहता है।B. चिंतित होगी कि इसे कोई गलतफहमी तो नहीं?C. पुलिस में जाकर FIR करवा देगी, अपनी सुरक्षा के लिये!</p><p><strong>उत्तर देने में सुविधा हो इसलिये यदि कोई लिखता है</strong> </p><p>कि^^करवा चौथ के आते ही हर विवाहिता के मन में एक अजीब सी हलचल होने लगती है।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, अविवाहिता के मन में ज़रूर हलचल नहीं होती?^^नवविवाहिताओं को तो जैसे बस इंतजार रहता है शरमाकर बादलों के घूंघट में छिपे चंद्रमा का सुंदर मुखड़ा देखने का।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, जो नहीं शरमातीं वे ज़रूर भरी दोपहरी में सूरज का चेहरा देखतीं <span class="">हैं<br /></span>^^पूजा करने के बाद हर सुहागन जी भर के खाती है।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, हर सुहागन बाकी दिन ज़रूर जी भर के नहीं खातीं?<br /><strong>^^वो मंदिर नहीं पब में जाती है**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, जो मन्दिर नही जातीं वे ज़रूर पब जाती हैं?</strong></p><p>आप ही के शब्द हैं ना? <strong>अगर आपकी ऐसी (**)सोच है तो निहायत अफसोसनाक है और निन्दनीय भी</strong> ।अगर उपरोक्त (**)विचारों वाले बुद्धि के अनुसार कहना चाहूँ तो यह आग लगाने वाली भाषा और सोच है ।बुद्द्धिवान जनों को इससे बचना चाहिये !!<strong>अभी तक तो आपको बुद्द्धिवान मान रहा</strong> हूँ, लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपकी भाषा भी...</p>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-14377990038778760112008-10-18T22:42:00.000-07:002008-10-19T02:25:26.341-07:00समूची संस्कृति को ही जहर में डुबो देने की पैरवी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjh4NplI7KYDbbqXnY9CHlOvpCk_6O1qZLC1NuACQxMO0ij7YMY7-rOB0V_TehADYCxywmJffmkBoH0f74DpBpiQ8NCytz7zyq4quKnDrIm9b9RQnR7_WxpKtP2UBoxAq08OhLLxFtuk3Y/s1600-h/glitterati_esha_deol.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258741119178423858" style="CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjh4NplI7KYDbbqXnY9CHlOvpCk_6O1qZLC1NuACQxMO0ij7YMY7-rOB0V_TehADYCxywmJffmkBoH0f74DpBpiQ8NCytz7zyq4quKnDrIm9b9RQnR7_WxpKtP2UBoxAq08OhLLxFtuk3Y/s320/glitterati_esha_deol.jpg" border="0" /></a><br /><br /><div><strong><span style="color:#cc0000;">लिव इन v/s करवा चौथ : तीसरी किस्त</span></strong><br /><br /><strong>लिव-इन</strong> प्रेमियों का बड़ा ही मासूम तर्क है कि अभी भी तो समाज में चोरी-छिपे यह सब चल रहा है। तो <strong>क्यों न खुलेआम यह सब हो।</strong> हे विद्वजनों, माना कि यह जहर अभी थोड़ी मात्रा में है, लेकिन बजाय इसका उतारा करने के, आप तो समूची भारतीय संस्कृति को ही जहर में डुबो देने की पैरवी कर रहे हो। </div><br /><div><strong>लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता मिले या नहीं?</strong> इस यक्ष प्रश्न को लेकर नवभारत टाइम्स ने बीते दिनों रायशुमारी की कवायद की। इसे नाम दिया गया- <a href="http://navbharattimes.indiatimes.com/debate/3579040.cms">एनबीटी महाबहस। </a><strong>65 फीसदी लोगों ने कहा- नहीं।</strong> यानी 35 फीसदी अभी भी ऐसे लोग हैं जो भारत को भारत नहीं बना रहने देना चाहते। </div><div><br />जब <strong>मल्लिका शेरावत</strong> और<strong> शिल्पा शेट्टी</strong> जैसी अभिनेत्रियां देश की दिशा निर्धारित करती दिखती हों और बाजार की शह पाकर अश्लीलता समाज पर हावी हो रही हो, तब यह तो होना ही था। <strong>ईशा देओल</strong> तो सार्वजनिक रूप से घोषणा कर चुकी हैं कि वे <a href="http://khabar.josh18.com/news/3036/6">शादी से पहले दो साल तक अपने बॉयफ्रेंड </a>के साथ एक ही घर में रहना चाहती हैं। वे दरअसल सुष्मिता सेन से प्रभावित हैं, जिन्होंने अपने <strong>नए</strong> बॉयफ्रेंड और अपनी नई फिल्म 'दूल्हा मिल गया' के निर्देशक मुदस्सर अजीज के साथ एक ही घर में बिना शादी के रहना शुरू किया है। देखा-देखी ऐसी ख्वाहिश ईशा देओल के मन में भी जगना ही थी। ईशा ने तो अपनी मां का उदाहरण देते हुए यहां तक कहा कि लिव इन रिलेशनशिप पर उनकी माता जी यानी हेमामालिनी को भी कोई एतराज नहीं है। ईशा कहती हैं कि मेरी मां खुले विचारों की हैं। और यदि मैं शादी किए बगैर ही किसी एक व्यक्ति के साथ रहती हूं तो उन्हें बुरा नहीं लगेगा। </div><br /><div><span style="color:#990000;"><strong>धन्य हो ईशा जैसी आज की बेटियां।</strong></span><br /><br /><strong>सुरेश चंद्र गुप्ता</strong> ने अपने <a href="http://kavya-kunj.blogspot.com/2008/01/blog-post_6242.html">काव्य कुंज </a>में लिव इन के विरोध में गजब की तान छेड़ी है, जो वाकई कान खड़े करने वाली है।<br />गौर फरमाइए-<br />एक राजा और एक रानी मिले एक पार्टी में,</div><div>गिर पड़े प्यार में एक दूसरे के साथ प्रथम दृष्टि में.</div><div>दोनों थे पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी,</div><div>प्रगतिशील विचारों के और विरोधी पुरानी मान्यताओं के,</div><div>छटपटाते थे मुक्त होने को दकियानूसी सामाजिक प्रथाओं से.</div><div>रहने लगे साथ लिव-इन रिलेशनशिप में.</div><div><span class=""></span></div><div>एक दिन राजा गिर पड़ा प्यार में एक और रानी के,</div><div>ले आया उसे भी साथ रहने को,</div><div>रानी को यह नहीं भाया और उसने भी चक्कर चलाया, </div><div>गिर पड़ी प्यार में वह भी एक और राजा के,</div><div>बिन विवाह बढ़ने लगा लिव-इन परिवार,</div><div><span class=""></span></div><div>एक रानी मां बनी एक राजकुमारी की.</div><div>हमारे मां-बाप ने हमें कोई काम की बात नहीं सिखाई,</div><div>हम इसे सब कुछ सिखाएंगे,</div><div>हमारे मां-बाप ने जो जिम्मेदारी पूरी नहीं की,वह हम पूरी कर दिखाएंगे,</div><div><span class=""></span></div><div>दूसरी रानी ने पूरी की अपनी जिम्मेदारी,</div><div>वह बनी मां एक राजकुमार की,</div><div>राजकुमार और राजकुमारी,लिव-इन माता पिता की देख रेख में,</div><div>बचपन से ही रहने लगे लिव-इन रिलेशनशिप में.</div><div>भारत का पहला लिव-इन परिवार,</div><div>देखें कौन तोड़ता हैं इन का रिकार्ड,</div><div>कब बनेगा नया रिकार्ड?</div><div><strong>तीन राजा और तीन रानी,एक लिव-इन रिलेशनशिप में.<br /></strong><br /><a href="http://kya-kahna.blogspot.com/2008/08/blog-post_07.html">झरोखा जिंदगी का</a> में ख्यात कार्टूनिस्ट <strong>अभिषेक </strong>भी अपनी कूची का सुर सुरेशजी की कलम से मिलाते नजर आ रहे हैं।<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_yAuxhv7v1MLjznm9ckFKQMW8Blf4r5YZtH11H5euxvxespQIcPk0i-fQjCa9jiRjA4Upfl9pNA5cRo6t8RHBUIZ9C0cMz5icQSlF8tK4DS6JyXSYDC3hQ8-sCbnLnJG0i9aeKeT7rYw/s1600-h/abhishek.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258743928994948802" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_yAuxhv7v1MLjznm9ckFKQMW8Blf4r5YZtH11H5euxvxespQIcPk0i-fQjCa9jiRjA4Upfl9pNA5cRo6t8RHBUIZ9C0cMz5icQSlF8tK4DS6JyXSYDC3hQ8-sCbnLnJG0i9aeKeT7rYw/s320/abhishek.jpg" border="0" /></a><br /><br />To be continued…</div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-67138216774035261282008-10-18T06:41:00.000-07:002008-11-07T18:38:26.294-08:00सुजाता जी आप भावनाओं को समझें<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJot7HP-_6gALyStToiy6E3lm5iel46XwQarw2wPHxEu5ADweFSN50M7L_zykdoG83tEK0icIE8hP17VDvNU2fIGOJMc8h7wQGti93Cedpyq4rNp-Eljp_Ww0QISdca38PlpMp-F7T6js/s1600-h/art2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258502123484923714" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 191px" height="187" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJot7HP-_6gALyStToiy6E3lm5iel46XwQarw2wPHxEu5ADweFSN50M7L_zykdoG83tEK0icIE8hP17VDvNU2fIGOJMc8h7wQGti93Cedpyq4rNp-Eljp_Ww0QISdca38PlpMp-F7T6js/s320/art2.jpg" width="320" border="0" /></a><br /><br /><strong><span style="color:#cc0000;">'लिव इन' को लेकर ब्लॉग बहस जीवंत हो चुकी है। चलो इसी बहाने प्रबुद्धजन आगे तो आए। कुल मिलाकर आग जलते रहना चाहिए। बहस चालू आहे... आप भी आमंत्रित हैं...</span></strong><br /><br /><br />अपनेराम <a href="http://pamarmanu.blogspot.com/">मनोजजी</a> का मानना है कि विचारों की जुगाली करना बुरी बात नहीं लेकिन <a href="http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html">सुजाता जी ने जिन तर्कों </a>के साथ अपनी बात रखने का प्रयास किया है, निश्चित ही उसे बौद्धिक मंच पर उचित नहीं कहा जा सकता। सुहाग, करवाचौथ का महत्व पश्चिम की जूठन चाटने वाले वो लोग क्या समझेंगे जो हर रात के बाद अपने घर का रास्ता भूल जाते हैं। यदि उन्हें विचारों की जुगाली करने का इतना ही शौक है, तो चम्बल के बीहड़ों में बसे किसी गांव या फिर बस्तर के घने जंगलों के रहने वाले परिवारों के बीच कुछ समय बिताएं और फिर समझाने का प्रयास करें। हम तो भगवान से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ऐसे लोगों को सदबुद्धि प्रदान करे, जो लिव-इन रिलेशनशिप और करवा चौथ को एक ही तराजू पर तौलना चाहते हैं। और हां, <strong>सुजाता जी आप भावनाओं को समझें।</strong> दिल पर लेने या व्यक्तिगत बात करने से किसी की बात को दबाया नहीं जा सकता।<br /><strong>वाकई मनोजजी, </strong><a href="http://pamarmanu.blogspot.com/"><strong>सच को सलाम</strong></a><strong>! </strong><br /><span class=""></span><br /><span class=""><a href="http://samvednasansaar.blogspot.com/">रंजना सिंह</a> जी ने लिखा है- यह</span> विडंबना ही है कि पश्चिम के आकाश से जबरदस्ती कुछ विचार के बादल, अपने नजरिए की बारिश हमारे ऊपर करते जाते हैं तो हम बजाय विरोध का छाता तानने के, उनके लिए लाल कालीन बिछाने लगते हैं। बेशक ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की उपयोगिता न्यूयार्क, लंदन में होगी जहां बच्चों और परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे के रिश्तों का महत्व बताने की जरूरत पड़े। अमेरिका में चौदह साल की उम्र तक पहुंचने वाली आधी से ज्यादा किशोरियां गर्भवती हो चुकी होती हैं, सोलह साल के बाद बेटा बाप के साथ नहीं, अलग रहता है। क्या ‘लिव इन’ के बहाने हम ऐसी दुनिया को खुद न्योतने की तैयारी नहीं कर रहे हैं? ऐसे दुर्दिन ईश्वर ना बताए, अगर ऐसा दिन आ गया है तो मानना चाहिए कि हमारे समाज के अंत की शुरूआत दस्तक दे रही है।<br /><br />......आपकी इस लेख कि प्रशंशा को शब्द नही मेरे पास.लगता है एक एक शब्द के द्वारा जैसे मेरे विचारों को ही शब्द मिला है.......बहुत बहुत सही लिखा है आपने.लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग कि वास्तु बन कर रह जायेगी.समाज में परिवार के नाम पर उन्मुक्त यौन संत्रास और बच्चों का क्या होगा पता नही.इस से सिर्फ़ और सिर्फ़ भोगवादी संस्कृति का विकास होगा और पश्चिम के तरह टूटे बिखरे सामाजिक मोल्या में घुटता हुआ समाज.<br /><strong>रंजनाजी आपकी इन </strong><a href="http://samvednasansaar.blogspot.com/"><strong>संवेदनाअों </strong></a><strong>को सलाम!<br /></strong><br /><a href="http://www.blogger.com/profile/10037139497461799634">सुरेश चंद्र गुप्ता</a> जी लिखते हैं- यह विडंबना ही है कि पश्चिम के आकाश से जबरदस्ती कुछ विचार के बादल, अपने नजरिए की बारिश हमारे ऊपर करते जाते हैं तो हम बजाय विरोध का छाता तानने के, उनके लिए लाल कालीन बिछाने लगते हैं।और अपने रीति-रिवाजों को पानी पी कर कोसते हैं, उन्हें षड़यंत्र कहते हैं. यहाँ सब कुछ ग़लत है. बाहर सब कुछ सही है. विवाह ग़लत है. लिव-इन सही है. क्या हो गया है है इन लोगों को?<br />लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग की वस्तु बन कर रह जायेगी.समाज में परिवार के नाम पर उन्मुक्त यौन संत्रास और बच्चों का क्या होगा पता नही. इस से सिर्फ़ और सिर्फ़ भोगवादी संस्कृति का विकास होगा और पश्चिम के तरह टूटे बिखरे सामाजिक मूल्यों में घुटता हुआ समाज.बिल्कुल सही बात है. मैं पूरी तरह सहमत हूँ इस विचार से.<br /><br />इन्होंने अपकी पहचान नहीं बताई है लेकिन अपेक्षा रखता हूं कि अगली टिप्पणी में भी इतना ही दमदार पक्ष रखेंगी। <strong>pinkshe</strong> ने कहा है कि - महेश जी मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूं। मैं खुद भी लिव इन रिलेशनशिप को सही नहीं मानती। मेरा मानना है कि इस तरह के रिशते से केवल पुरुषों को ही फायदा पहुंचाते हैं। समाज में पहले ही विवाहेतर संबंधों की आंधी ने न जाने कितनी ही विवाहिताओं की जिंदगी को तबाह किया है और अब भी कर रही है ऐसे में लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा समाज को तोड़ने की कोशिश कर रही है। सुजाता जी से मैं यही कहना चाहूंगी कि एक बार आप अपनी सोच को किनारे कर इस पूरे मुददे पर दोबारा विचार करें और यह सोचें कि ऐसे रिशते कुछ महिलाओं के लिए जीवन भर की ञासदी बन जाते हैं। आप ऐसा कयों सोच रही हैं कि महेश जी ने महिलाओं को दो भागों में बांट दिया है- एक मंदिर जाने वाला और दूसरा पब जाने वाला। यह उदाहरण माञ है।<br /><br /><strong><a href="http://www.blogger.com/profile/17556799444192593257">डॉ प्रवीण चोपड़ा</a></strong> ने लिखा है - मेरी हिंदी तो बस मैट्रिक स्टैंडर्ड की ही है लेकिन मैं आप की इस पोस्ट और पिछली पोस्ट पर लिखी काफी बातें समझ गया हूं और जो कुछ भी समझा है उन से मैं पूरी तरह से सहमत हूं। वैसे आपने लिखा है कि घाटा तो औरत को ही है...लेकिन मैं समझता हूं कि इस तरह के अरेंजमैंट्स में आदमी भी कहां चैन की नींद सो पाता है....धोबी वाली कहावत में न घर न घाट के रहने वाली बात उस की हो जाती है......एक बात आदमी इन चक्करों में पड़ जाये तो बस चक्रव्यूह में फंसने वाली ही बात है। एक बात इमानदारी से कह रहा हूं कि मैं अकसर बढ़िया सी हिंदी लिखी जब देखता हूं तो डर सा जाता हूं.....लेकिन फिर पढ़ने की कोशिश करता हूं । आप की बात सही है कि पश्चिम की सभ्यता कुछ ज़्यादा ही हावी होती जा रही है। और इन सब की बारिश में लाल कालीन बिछाने वाली बात तो बिलकुल सही कही।<br /><br /><span class=""><a href="http://weddedtotheolivegreen.blogspot.com/">अम्बरीन</a>जी</span> के कमेंट भी गौर फरमाइए- Hey! Sujata Dont react so much....What he wrote was just a perspective. No where in his blog he said there are just these two types of women. He is just comparing two of the many facets. Infact I just loved it. Infact we all did. Don't take it personally.<br /><strong><span style="color:#ff0000;">रचनाजी के मुताबिक</span></strong> - " लिव इन रिलेशनशिप को ले कर महारास्ट्र सरकार के फैसले से सबको आपति हुई ।इसलिये इसको वूमन सेल मे भेजने का निर्णय लिया गया ." एक औरत के खिलाफ दूसरी "औरत की थीयोरी को फिर ऊपर लाया गयालिव इन रिलेशनशिप वाली बात को महिला आयोग को भेज दिया गया हैं क्युकी "स्त्री विरोधी " बता दिया गया हैं । कितना आसन हैं हर बात को स्त्री विरोधी बता देना और ख़ुद स्त्रियाँ ही ये कर रही हैं । क्योकि वास्तव मे ये फैसला पत्नी विरोधी नहीं " पुरूष विरोधी " था । कोई भी पुरूष विरोधी बात इस देश को मान्य नहीं हैं ।पत्नी को समझाया गया की इस तरह तो आप का अधिकार बंट जायेगा ,समाज को समझाया गया की अनेतिकता बढ़ जाएगी ।एक पत्नी के लिये केवल पत्नी होना और सामजिक और कानूनी रूप से सुरक्षित रहना क्या इतना जरुरी हैं की वो अपने पति के दूसरे सम्बन्ध को स्वीकार करे जिसको समाज के समाने नहीं लाया जाता । ना जाने कितनी पत्निया ये अनैतिकता स्वीकार करती हैं आज भी कर रही हैं और इन मे वो नारियां भी हैं तो पढ़ी लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वंतंत्र हैं । क्यों कर रही हैं ?? जिस मानसिक यंत्रणा से वो गुज़रती हैं क्युकी समाज { दोनों तरफ़ के परिवार , मित्र } उनको यही बताता हैं " तुम कानूनी रूप से सुरक्षित हो , वो पत्नी नहीं हैं " wओ वह बहुत भयंकर होती हैं । एक बार अगर उसको अपने पति पर शक हो जाता हैं जो निर्मूल नहीं निकलता हैं तो उसकी बाकी की साड़ी वैवाहिक जिंदगी पति की जासूसी करने मे ही बीत जाती हैं पर सब कुछ जान लेनी के बाद भी उसको खामोश को कर सही समय का इंतज़ार करने को कहा जाता हैं जब पति स्वेच्छा से या सामाजिक दबाव से उसके साथ वापस रहता हैं और फिर जिन परिस्थितयों मे पुनेह वो पति के साथ दैहिक सम्बन्ध स्थापित करती हैं वो कितना वितृष्णा महसूस करती हैं ।शायद हमारा समाज अभी भी यही चाहता हैं की पुरूष को स्वतंत्रता रहे अनैतिक रिश्तो मे जीने की और उसका कोई सामजिक उत्तरदायित्व { जिमेदारी ना हो उस महिला के प्रति जिसके साथ उसने बिना शादी के सम्बन्ध बनाया । जिन महिला के ये सम्बन्ध बनते हैं वो अगर आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं तो वो शायद ही कानूनी रूप से इस सम्बन्ध से आर्थिक सुरक्षा का दावा करेगी । भावनात्मक रूप से वो पुरूष से जुड़ जाती हैं और फिर अपने को अलग नहीं कर पाती { और ये उनकी कमजोरी हैं जिस से उनको निकलना होगा क्युकी वो भावना मे बह कर केवल और केवल अपना नुक्सान करती हैं } ।सामाजिक दबाव के चलते पुरूष को तलाक भी नहीं मिलता क्युकी तलाक पति के मांगने पर कानून कम ही देता हैं और फिर अगर दोनों सम्बन्ध "चल ही रहे हैं " तो कौन पुरूष या स्त्री { पत्नी और सहचरी } अपना समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभाना चाहेगे ।जो महिला आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं उनके लिये ये कानून एक रौशनी की तरह था ताकि वो भी पत्नी की तरह कानूनी रूप से अपने को सुरक्षित समझे ।समाज के प्रति हमारा क्या उत्तरदायित्व क्या मात्र इतना ही हैं की हम ग़लत संबंधो पर चादर डालते रहे ? दबे ढंके जो लोग ग़लत संबंधो को बनाते हैं उनको बचाते रहे ?आज जब नई पीढी लडके , लड़कियों की तैयार हो रही हैं तो वो ज्यादा निरंकुश हो कर ऐसे संबंधो को जी रही हैं क्युकी उनको लगता हैं वो कम से सचाई से तो जी रहे हैं , पुरानी पीढी की तरह झूठ बोल कर तो नहीं रह रहे ।जो लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं वो वास्तव मे नई पीढी को संदेश दे रहे हैं छुप कर किया गया सब मान्य हैं और पुरूष को अधिकार है निरंकुश जीवन जीने का ।इस कानून के बन जाने से एक " responsibility " बन जाती उन लोगो की समाज के प्रति जो ऐसे संबंधो मे रहते हैं । फिर उनको जरुर लगता की अगर इस सम्बन्ध मे भी वही कानून होगा जो शादी मे तो वो शादी करना बेहतर समझते । शायद हमारा समाज ये नहीं चाहता की नयी पीढी जिम्मेदार बने ।इस कानून जिसको अगर सख्ती से लागू किया जाता तो शायदइस डर से कीलम्बे समय तह ऐसा रिश्ता रखने वालो को एक उत्तरदायित्व भी निभाना होगा जो सामाजिक हैं { collective responsibilty towards society in general }इन रिश्तो का बनना और पनपना कम हो जाता ।<br /><span style="color:#990000;"><span class=""></span></span><br /><span style="color:#990000;">चोखेर बाली परिवार के चोखे? बयान- </span><br /><strong><span style="color:#ff0000;">सुजाताजी के मुताबिक</span></strong> - आपका यह सोचना फिर से उसी मानसिकता के तहत है कि यह नही तो वही बात होगी । कि मैने करवा चौथ पर नाराज़गी दिखाई तो ज़रूर मै लिव इन की हिमायती हूँ । मेरी घोर आपत्ति केवल इस बात पर है कि आप पहले से ही परम्परा संकृति और न जाने क्या क्या को लेकर तरह तरह के डर पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और सहमत हूँ रचना जी से कि -शायद हमारा समाज ये नहीं चाहता की नयी पीढी जिम्मेदार बने ।सारा सवाल नियंत्रण का है । समाज को इंडीविजुअल पर पूरा नियंत्रण चाहिये , माता पिता को औलादों पर पति को पत्नी पर ....कोई किसी की समझदारी पर यकीन नही करता और अपने सिखाए पर ।यद्यपि जिस विषय पर आपने लिखा उस पर बहस करने का मेरा इरादा कतई नही केवल उस सोच को लक्ष्य बनाया था कि मै करवा चौथ और सुहाग की बात नही मानती तो आप उसका कैसे अर्थ यह करे लेते है कि लिव इन मे विश्वास है?खैर ,रंजना जी का कथन - लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग कि वास्तु बन कर रह जायेगी.....भी साफ करता है कि स्त्री जाति है ही मूर्ख ,और आपका लेख भी यही दर्शाता है कि यहाँ एक वयस्क व्यक्ति सरकार बनाने की ज़िम्मेदारी तो ले सकता है पर अपने जीवन की ज़िम्मेदारी नही उठा सकता। तो फिर ऐसे मे हमें अपने बच्चों को ज़िम्मेदार बनने के बारे मे विचार करना चाहिये न कि किसी अज्ञात भविष्य का डर बिठाना चाहिये और प्राक्कल्पनाएँ गढनी चाहियें।मेरा मात्र विरोध है तो आपकी इस सोच से कि एक खास ढांचे मे न ढली स्त्री भ्रष्ट है ।महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-57809750848753888212008-10-18T01:02:00.001-07:002008-10-28T05:55:06.509-07:00लिव इन v/s करवा चौथ v/s आग लगाने वाली सोच!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYBxJ1RiRae0ZN061uNupHBo6abeH88nN1qwAmZAck9pfsCEuo1EPw5BfsZitnAU25NWRmURdn8LuEBiO1bbbxN-aNjZ26Y14iHSqLX21vgXghz1ymWDRQC1JuWrIMNf23tXczZpmjiLc/s1600-h/Swastika.png"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258411029534781666" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYBxJ1RiRae0ZN061uNupHBo6abeH88nN1qwAmZAck9pfsCEuo1EPw5BfsZitnAU25NWRmURdn8LuEBiO1bbbxN-aNjZ26Y14iHSqLX21vgXghz1ymWDRQC1JuWrIMNf23tXczZpmjiLc/s320/Swastika.png" border="0" /></a><br /><div><span style="font-size:130%;">दूसरी किस्त</span></div><div><br />अव्वल तो यह कि कहानी के किसी एक पात्र की मानसिकता को लेखक की मानसिकता मान लेना क्या उचित है? फिर भी, सुजाताजी, ‘लिव इन’ के काफी मुद्दों पर आपकी नाराजगी जायज है। आखिर हम अपने समाज, संस्कृति के बारे में ऐसी दूषित मानसिकता वाली बातें कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? लेकिन ‘लिव इन v/s करवा चौथ!’ तो मात्र इशारा है, कानून बनने के बाद जब ‘लाइव इन’ होगा तब भी क्या आप <a href="http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html">इतना ही</a> मुखर होंगी? या <a href="http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html">अभी की तरह</a> पक्ष लेंगी। इंतजार रहेगा...</div><div><span class=""></span> </div><div>यह विडंबना ही है कि पश्चिम के आकाश से जबरदस्ती कुछ विचार के बादल, अपने नजरिए की बारिश हमारे ऊपर करते जाते हैं तो हम बजाय विरोध का छाता तानने के, उनके लिए लाल कालीन बिछाने लगते हैं। बेशक ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की उपयोगिता न्यूयार्क, लंदन में होगी जहां बच्चों और परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे के रिश्तों का महत्व बताने की जरूरत पड़े। अमेरिका में चौदह साल की उम्र तक पहुंचने वाली आधी से ज्यादा किशोरियां गर्भवती हो चुकी होती हैं, सोलह साल के बाद बेटा बाप के साथ नहीं, अलग रहता है। <strong>क्या ‘लिव इन’ के बहाने हम ऐसी दुनिया को खुद न्योतने की तैयारी नहीं कर रहे हैं? </strong>ऐसे दुर्दिन ईश्वर ना बताए, अगर ऐसा दिन आ गया है तो मानना चाहिए कि हमारे समाज के अंत की शुरूआत दस्तक दे रही है। </div><br /><div><strong>सवाल</strong> यह है कि ‘लिव इन’ क्या वाकई <span class="">महिलाओं </span>की स्थिति को मजबूत बनाएगा? एक तरफ जहां हम वसुदेव कुटुंबकम के झंडाबरदार बनने का दावा करते हैं, दूसरी ओर परिवार को तोड़ने की <a href="http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html">पैरवी</a> कर रहे हैं? क्योंकि संशोधन यदि हुआ तो उसमें मुख्य रूप से पत्नी (जिसके बिना परिवार की कल्पना ही नहीं की जा सकती) शब्द की परिभाषा ही बदल जाएगी। </div><div><br /><strong>अब इसे सिलसिलेवार देखें-</strong> <span style="color:#ff0000;"><strong>पहला पहलू :</strong></span> दरअसल भारतीय महानगरों और बीपीओ इंडस्ट्री से जुड़ी नौकरियों में पिछले कुछ सालों में साथ रहने का <strong>‘ऐसा’</strong> चलन बहुत तेजी से बढ़ा है। कुछ युवा इसे नए फैशन की तरह अपना रहे हैं, तो कुछ लोगों के लिए यह आधुनिक जीवन की मजबूरी है। मसलन आर्थिक तौर पर सक्षम नहीं हो पाना या शादी में बंधने के बारे में निर्णय न ले पाना। ऐसी मजबूरियां करियर के लिए संघर्ष कर रही लड़कियों के साथ भी हैं। वे अपने घर-परिवार से दूर किसी मेट्रो में आ कर रहती हैं और अनियमित घंटों वाली नौकरियां भी करती हैं। उनके लिए महानगरीय अकेलापन, सुरक्षा और खर्च जैसे मुद्दों के लिहाज से साथ रह लेने का इंतजाम एक सुविधाजनक रास्ता है। <strong>लेकिन इस लिव-इन जुगाड़ में भी ज्यादा घाटा स्त्रियों को ही उठाना पड़ रहा है।</strong> साथ रहने वाला पुरुष अचानक उन्हें छोड़ कर चल देता है और वे नतीजे भुगतने के लिए छोड़ दी जाती हैं। </div><br /><div><span style="color:#ff0000;"><strong>दूसरे पहलू पर गौर फरमाएं :</strong> </span>लंबे समय से इस बात पर भी बहस चल रही है कि विवाहेत्तर संबंधों को अपराध माना जाए कि नहीं। क्योंकि <a href="http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/02/070218_marriage_relation.shtml">राष्ट्रीय महिला आयोग मांग कर चुका </a>है कि विवाहेत्तर संबंधों को अपराध न मानते हुए एक समाजिक समस्या के रूप में देखा जाए। सर्वोच्च न्यायालय की वकील के मुताबिक यह मामला इसलिए भी सामाजिक है क्योंकि विवाहेत्तर संबंध की समस्या को दंड देकर नहीं रोका जा सकता। समाधान मुआवज़ा या तलाक़ देकर किया जा सकता है।</div><div><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>अब तीसरा पहलू भी देखें :</strong></span> भारतीय <a href="http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/06/080618_sc_marriage.shtml">सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर चिंता जताई </a>है कि हिंदू विवाह अधिनियम जितने घर बसा नही रहा उससे ज़्यादा घरों को तोड़ रहा है। तलाक़ के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के एक पीठ ने यह टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तलाक़ के बढ़ते मामलों का <strong>बुरा असर परिवार के बच्चों पर पड़ता है.</strong> वर्ष 1955 में बने इस क़ानून में कई बार संशोधन किया जा चुका है. पहले भारतीय विवाह पद्धति में तलाक़ का कोई प्रावधान या प्रचलन नहीं था और संसद ने क़ानून पारित करते हुए जब इसमें तलाक़ का प्रावधान किया तो इसे ब्रिटिश क़ानून से लिया गया था. अब तो शादी के समय ही तलाक़ की अग्रिम याचिका तैयार कर ली जाती है। अदालत का कहना था कि पारिवारिक जीवन में पहले भी समस्याएं आती थीं लेकिन उन्हें घर के भीतर ही सुलझा लिया जाता था।<br /><br />ऊपर के तीनों उदाहरणों में एक बात बेहद साफ है कि <strong>अंत में भुगतना तो स्त्री को ही पड़ता है।</strong> क्या आप ऐसे मुद्दों की पैरवी करेंगे? बताइए आग लगाने वाली सोच किसकी? </div><div><br /><strong>एक जमाने में</strong> गांव की लड़की पूरे गांव के लिए बहन या बेटी होती थी। <strong>आज</strong> बच्चा दहलीज से लगे मकान में रहने वाली पड़ोसी की लड़की को वेलेंटाइन ग्रीटिंग मय दिल के भेंट करने के लिए मौका तलाश रहा है। प्यार, मोहब्बत, इश्क इन लफ्जों के मायने आज की दुनिया में हमारे युवा वर्ग के लिए क्या हैं? इस उपभोक्तावादी दौर में जहां टीवी चैनल की तरह खटाखट दिल बदले जाने लगे हैं, प्रेम का अर्थ महज सैक्स आकर्षण तक सिमट गया है। आज जब टीवी और नेट के मार्फत पूरा विश्व हमारे ड्राइंग रूम में कब्जा जमा चुका है, <strong>इस महाभारत में वही बचेगा जिसकी जड़ें मजबूत हैं, जो अपने इतिहास और संस्कृति को ढाल नहीं तलवार बनाएगा।</strong> बाकी सब अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में लड़ते-लड़ते मारे जाएंगे।<br /><br /><strong>हम यह कैसे भूल जाते हैं</strong> कि सांस्कृतिक विविधता ही हमारी जड़ें हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर चंद किलोमीटर पर बदली जाने वाली भाषा, भोजन के बावजूद हजारों सालों से हम एक रहे हैं। बर्बर हूण, शक, मंगोल और मुगलों के आक्रमणों को तो हम झेल गए और उन्हें अपनी मिट्टी में ऐसा समाहित किया कि वे आज कहीं नजर नहीं आते। लेकिन <strong>आज होने वाला आक्रमण इतना सुनियोजित है कि हम उसका मुकाबला करने के बजाय उसके सहयोगी बनते जा रहे हैं।</strong> </div><div><br /><strong>इसलिए</strong> जिन घरों में दौलत की इफरात है या बाप-बेटे साथ बैठकर चीयर्स करते हैं, वहां तो ‘लिव इन’ का शो चल जाएगा लेकिन मध्यमवर्गीय या गरीब घरों में जहां रोटी और बेरोजगारी की जंग संस्कृति और परंपराओं की छतरी तले लड़ी जा रही है, ये विदेशी रस्म तनाव पैदा कर बैठेगी।<br /><br />To be continued…</div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-39482336618670323142008-10-17T09:23:00.000-07:002008-10-28T05:52:17.555-07:00लिव इन v/s करवा चौथ!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUJoTCHL2lVlnhfWKFxo7klJ5IKlctYL9piYiuTSccsNYUB-7qZzuRasM_MAl92Cp7oXRHIWdXSPv85Wb5rDBPwYrgF4UmdyV1VCEekiSUQM1XP23plArTzW6eKeLABWsUGFuhWCbRfvI/s1600-h/rt1a.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258163039832659810" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUJoTCHL2lVlnhfWKFxo7klJ5IKlctYL9piYiuTSccsNYUB-7qZzuRasM_MAl92Cp7oXRHIWdXSPv85Wb5rDBPwYrgF4UmdyV1VCEekiSUQM1XP23plArTzW6eKeLABWsUGFuhWCbRfvI/s320/rt1a.jpg" border="0" /></a><br /><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXOsfHzB9qK6bpqKr_yx-aWM02mSwt3GK4kNfeQMJgICkaJVSjyzr0zlcEdnC3fwJsO0WwKX6ALptKnCkNeCAottrWUZDRGIdg52GxnhOJYc90v2TxLuKltv3XXYat1uUFp0lF9Q3ImC0/s1600-h/Karwa%2520Chauth1.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5258162509656159266" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXOsfHzB9qK6bpqKr_yx-aWM02mSwt3GK4kNfeQMJgICkaJVSjyzr0zlcEdnC3fwJsO0WwKX6ALptKnCkNeCAottrWUZDRGIdg52GxnhOJYc90v2TxLuKltv3XXYat1uUFp0lF9Q3ImC0/s320/Karwa%2520Chauth1.jpg" border="0" /></a><br /><br /><br /><div><strong><span style="font-size:130%;">पहली किस्त</span></strong></div><span class=""></span><br /><br /><br /><div><br /><strong>चांद</strong> निकलने में अभी कुछ समय बाकी था... इधर, सजी-धजी विवाहिताओं को देखकर करवा चौथ इठला रही थी, उधर गुस्से से लाल ‘लिव इन रिलेशन’ झल्लाते हुए कह रही थी- आखिर ऐसा क्या है तुममें जो तुम्हारे आते ही हर विवाहिता के मन में एक अजीब सी हलचल होने लगती है? क्यों उनका मन साज-श्रंगार करने के लिए लालायित होने लगता है? नवविवाहिताओं को तो जैसे बस इंतजार रहता है शरमाकर बादलों के घूंघट में छिपे चंद्रमा का सुंदर मुखड़ा देखने का। उन्हें न भूख, न प्यास का अहसास होता है। </div><div><br />करवा ने शांत भाव से कहा- तुम नहीं समझोगी। यह एक ऐसा पावन दिन है जब पति की आयु के लिए की गई प्रार्थना प्रभु स्वीकार करते हैं और यही विवाहिता के लिए बड़ा वरदान है। इसे कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस दिन छोटी बहू, परिवार की बड़ी बहू या फिर सास को करवा और मिष्ठान्न प्रदान कर अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद लेती है। चौथ के एक दिन पहले ही महिलाएं मेहंदी लगवाकर अपनी सजी हथेली से पूजन करती हैं। सुहागिनें मंदिर लाल कपड़े पहन कर मंदिर में पूजा करने आती हैं अपनी थाली के साथ। लाल रंग के परिधान इसलिए, क्योंकि लाल रंग शुभ व सुहाग का प्रतीक माना जाता है। वैसे तो चौथ का व्रत सुबह के चार-पांच बजे के बाद शुरू होता है क्योंकि सूरज के निकलने से पहले महिलाएं खाना खा सकती हैं। व्रत रात के दस बजे के आस-पास तक चलता है। रात के चांद और अपने चांद से पति को देख कर पूजा करने के बाद हर सुहागन जी भर के खाती है। यही नहीं समय में आए बदलाव के अनुसार अब पुरुष भी अपनी पत्नी के लिए करवा चौथ का व्रत रखते हैं और अपनी पत्नी की भावनाओं, उनकी आकांक्षाओं का ख्याल रखते हुए दोनों एक-दूजे के साथ-साथ, एक-दूजे के हाथ से व्रत का समापन करते हैं।<br /></div><div><span class=""></span> </div><div>बस-बस... बहुत हो गया... अब रहने भी दो ये दकियानूसी बातें। ‘लिव इन’ तुनक कर बोली। ...और क्या होता है ये ‘विवाहिता’? कैसा परिवार? कैसा सुहाग और सुहागन? और सास! वो तो आउट ऑफ डेट हो गई है बेबी। लिव इन में कोई झंझट ही नहीं। आज की औरत लाल कपड़े पहनती है तो इसलिए कि इसमें वो हॉट और सेक्सी लगती है। वो मंदिर नहीं पब में जाती है, दर्शन करने नहीं- दर्शन कराने। मेहंदी तो ओल्ड फैशन है यार! कमर के बहुत नीचे या छाती पर सिजलिंग टैटू गुदवाना इज इन फैशन। इस मदहोशी में सारी रात जागना तो हो ही जाता है। अरे चांद देखने की जरूरत क्या है? डिस्को थेक की चमक है न। और सुहाग? लिव इट यार... हर रात एक ही चेहरा देखकर बोर नहीं हो जाती हो तुम?<br /></div><div>To be continued…</div></div>महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7520680162902835741.post-53308820579297989982008-09-15T05:43:00.000-07:002008-09-15T05:54:57.613-07:00मेरे पास मां है...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMB8QJ34Nnyq34agOwthlpz1qqIXhGJQt43EIc5iXWwyjVxYudHajhA6WElTOVqXQJxj7KUPykg_VDv2PeKu19PCsIKjSzCkG8RjvEme31F0_TQQ85NxEXuTNhoYkT-IXg1kDeVX6FOO8/s1600-h/girl+with+book.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMB8QJ34Nnyq34agOwthlpz1qqIXhGJQt43EIc5iXWwyjVxYudHajhA6WElTOVqXQJxj7KUPykg_VDv2PeKu19PCsIKjSzCkG8RjvEme31F0_TQQ85NxEXuTNhoYkT-IXg1kDeVX6FOO8/s320/girl+with+book.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5246229449750539026" border="0" /></a><b>एक वर्ष</b> बीतने के बाद भारतवर्ष में हिंदी दिवस फिर आया... हिंदी को खोजा, हालत देख दबे पांव चला गया। हिंदी तो उस मरीज की तरह हो गई है जो मेडिक्लेम चेन वाले अस्पताल के आईसीयू में वेंटिलेटर पर हांफ रहा है। अब तो मिलने आने वाले गिने-चुने लोगों ने कुशलक्षेम भी पूछना बंद कर दिया। न कोई फूल न फल। परिजन को इंतजार है कि इससे मुक्ति मिले तो क्लेम <span>लें।<br /></span><br />हिंदी की हालत उस बूढ़े पिता के समान हो गई है जिसका करोड़पति बेटा वृद्धाश्रम भेजने पर तुला है, जबकि सारी धन-दौलत पिता की कमाई हुई है। हिंदी की ऐसी दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? हिंदी का उपयोग नहीं करने के लिए आखिर किसने रोका है? हम हिंदीभाषी खुद ही हिंदी की जुबान काटकर अंग्रेजी को देवी मानकर उसके सामने चढ़़ा रहे हैं। श्राद्ध के दिनों में आखिर हम कब तक हिंदी का तर्पण उन पितरों की तरह करते र<span><span><span><span>हेंगे</span></span></span></span>, जिन्हें साल में एक बार सर्वपित्री अमावस्या को याद किया जाता है।<br /><br />ऊंचे लोग बनकर ऊंची पसंद के रूप में अंग्रेजी का पाउच मुंह में उंडेलकर अपनी पीक से हिंदी की तस्वीर को गंदा करते-करते हम यह भूल गए हैं कि इससे अंतत: कैंसर ही होगा। लेकिन हम तो अपनी मां (हिंदी) को नौकरानी (अंग्रेजी) की तुलना में बदसूरत मान चुके हैं। क्या एक खूबसूरत आइटम गर्ल को मां से बदला जा सकता है? पर हम तो बदल चुके हैं। हम लांच पाटिüयों में डूबे उन फिल्मी सितारों और शैम्पेन के झाग उड़ाते क्रिकेट खिलाड़ियों से क्यों नहीं पूछते कि हिंदी की घुट्टी पीकर मजबूती पाने के बावजूद रुपहले पर्दे और मैदान से बाहर आते ही अंग्रेजीदां क्यों हो जाते हैं? उन खद्दरधारियों का सिर, टोपी उतारकर ओखली में क्यों नहीं दे दिया जाता जो वोट हिंदी में मांगते हैं और संसद में गरीबी के हाथी को काबू करने का अंकुश अंग्रेजी के शब्दों से बनाते हैं।<br /><br />आखिर अंग्रेजी में ऐसा क्या है कि मुश्किल से आधा दर्जन देशों में बोली जाने वाली इस भाषा के बिना बाकी दुनिया आगे ही नहीं बढ पा रही है? हिंदी के अतुल और अकूत शब्दकोष के आगे न सिर्फ अंग्रेजी, बल्कि दुनिया की कोई भी भाषा बौनी ही है। इसके बावजूद बच्चे के बोलना शुरू करने से पहले ही उसे मम्मी-डैडी रटा दिए जाते हैं। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो `नॉलेज´ और नौकरी का डर दिखाकर अंग्रेजी के अंगने में डाल दिया जाता है।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZDXO0iZ97Rhddfjw5FQEAVdQnLcmmBAZ58fHS_Jp1MpNua_RA_Gptox4R1pi1axwUKRsmZ8y7PxRY0d5FWdcTNbCReKNVp0jdcqSKGHuHkH4k80d8xF-kQBlt8zQLyzVBpMPk8ie6BNI/s1600-h/alphachart.jpg"><img style="margin: 0pt 0pt 10px 10px; float: right; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZDXO0iZ97Rhddfjw5FQEAVdQnLcmmBAZ58fHS_Jp1MpNua_RA_Gptox4R1pi1axwUKRsmZ8y7PxRY0d5FWdcTNbCReKNVp0jdcqSKGHuHkH4k80d8xF-kQBlt8zQLyzVBpMPk8ie6BNI/s320/alphachart.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5246229924727219282" border="0" /></a>भले ही चीन भी अब अंग्रेजी के पीछे `çस्टक-फोर्क´ लेकर पड़ गया हो लेकिन अपने देश में तो यह साबित हो गया है कि बाजार की भाषा हिंदी ही है। डिस्कवरी से लेकर फिरंगी चैनल तक का अपने कार्यक्रम हिंदी में प्रसारित करने के लिए मजबूर होना इस तथ्य की पुष्टि भी करता है। हॉलीवुड फिल्में धड़ाधड़ हिंदी में डब की जा रही हैं।<br /><br />अपने बच्चों को अंग्रेजी के आश्रम में भेजने वाले अंत समय में खुद को वृद्धाश्रम में पाएं तो उन्हें बुरा नहीं मानना चाहिए। अभी भी समय है हम चेतें, जागें और सार्वजनिक जीवन में सिर्फ और सिर्फ हिंदी का प्रयोग करें तभी मां को मां का दर्जा मिल सकेगा और हम गर्व से कह सकेंगे मेरे पास मां है...महेश लिलोरियाhttp://www.blogger.com/profile/10869978098249622772noreply@blogger.com6