Monday, September 15, 2008

मेरे पास मां है...

एक वर्ष बीतने के बाद भारतवर्ष में हिंदी दिवस फिर आया... हिंदी को खोजा, हालत देख दबे पांव चला गया। हिंदी तो उस मरीज की तरह हो गई है जो मेडिक्लेम चेन वाले अस्पताल के आईसीयू में वेंटिलेटर पर हांफ रहा है। अब तो मिलने आने वाले गिने-चुने लोगों ने कुशलक्षेम भी पूछना बंद कर दिया। न कोई फूल न फल। परिजन को इंतजार है कि इससे मुक्ति मिले तो क्लेम लें।

हिंदी की हालत उस बूढ़े पिता के समान हो गई है जिसका करोड़पति बेटा वृद्धाश्रम भेजने पर तुला है, जबकि सारी धन-दौलत पिता की कमाई हुई है। हिंदी की ऐसी दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? हिंदी का उपयोग नहीं करने के लिए आखिर किसने रोका है? हम हिंदीभाषी खुद ही हिंदी की जुबान काटकर अंग्रेजी को देवी मानकर उसके सामने चढ़़ा रहे हैं। श्राद्ध के दिनों में आखिर हम कब तक हिंदी का तर्पण उन पितरों की तरह करते रहेंगे, जिन्हें साल में एक बार सर्वपित्री अमावस्या को याद किया जाता है।

ऊंचे लोग बनकर ऊंची पसंद के रूप में अंग्रेजी का पाउच मुंह में उंडेलकर अपनी पीक से हिंदी की तस्वीर को गंदा करते-करते हम यह भूल गए हैं कि इससे अंतत: कैंसर ही होगा। लेकिन हम तो अपनी मां (हिंदी) को नौकरानी (अंग्रेजी) की तुलना में बदसूरत मान चुके हैं। क्या एक खूबसूरत आइटम गर्ल को मां से बदला जा सकता है? पर हम तो बदल चुके हैं। हम लांच पाटिüयों में डूबे उन फिल्मी सितारों और शैम्पेन के झाग उड़ाते क्रिकेट खिलाड़ियों से क्यों नहीं पूछते कि हिंदी की घुट्टी पीकर मजबूती पाने के बावजूद रुपहले पर्दे और मैदान से बाहर आते ही अंग्रेजीदां क्यों हो जाते हैं? उन खद्दरधारियों का सिर, टोपी उतारकर ओखली में क्यों नहीं दे दिया जाता जो वोट हिंदी में मांगते हैं और संसद में गरीबी के हाथी को काबू करने का अंकुश अंग्रेजी के शब्दों से बनाते हैं।

आखिर अंग्रेजी में ऐसा क्या है कि मुश्किल से आधा दर्जन देशों में बोली जाने वाली इस भाषा के बिना बाकी दुनिया आगे ही नहीं बढ पा रही है? हिंदी के अतुल और अकूत शब्दकोष के आगे न सिर्फ अंग्रेजी, बल्कि दुनिया की कोई भी भाषा बौनी ही है। इसके बावजूद बच्चे के बोलना शुरू करने से पहले ही उसे मम्मी-डैडी रटा दिए जाते हैं। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो `नॉलेज´ और नौकरी का डर दिखाकर अंग्रेजी के अंगने में डाल दिया जाता है।

भले ही चीन भी अब अंग्रेजी के पीछे `çस्टक-फोर्क´ लेकर पड़ गया हो लेकिन अपने देश में तो यह साबित हो गया है कि बाजार की भाषा हिंदी ही है। डिस्कवरी से लेकर फिरंगी चैनल तक का अपने कार्यक्रम हिंदी में प्रसारित करने के लिए मजबूर होना इस तथ्य की पुष्टि भी करता है। हॉलीवुड फिल्में धड़ाधड़ हिंदी में डब की जा रही हैं।

अपने बच्चों को अंग्रेजी के आश्रम में भेजने वाले अंत समय में खुद को वृद्धाश्रम में पाएं तो उन्हें बुरा नहीं मानना चाहिए। अभी भी समय है हम चेतें, जागें और सार्वजनिक जीवन में सिर्फ और सिर्फ हिंदी का प्रयोग करें तभी मां को मां का दर्जा मिल सकेगा और हम गर्व से कह सकेंगे मेरे पास मां है...

6 comments:

Neeraj said...

sahi hai ki ham "english" ki gulami me ji rahe hain. in bedion se mukt to hona hi hoga.apni ma ki ajadi ki khatir' tabhi ham kah skenge " mere pas ma hai"

Udan Tashtari said...

सही कहा!!

pallavi trivedi said...

सही बात है...

Unknown said...

i think u r right but ...first of all u improve yourself..this is the right way to respect our MAA....

Manoj Pamar said...

महेश भाई ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है। आपकी रचना में भाषा का जो प्रवाह है, जो संजीदगी है, निश्चित ही आपके व्यक्तिव से काफी मेल खाती है। ब्लॉग की दुनिया में गंभीर चिंतन का अभाव आप जैसे भाषा के जादूगर ही दूर कर सकते हैं। सृजन के केनवास पर आपकी भाषा की कूची नियमित चलती रहे, हम तो यही प्रार्थना करते हैं। आपको बहुत-बहुत बधाई।

Unknown said...

sir ji pranam
aap to gjab ka likhte hai
Badi pratibha chupa rakhi thi.
waise maine ek sarsri nigah se blog dekha hai. par vishay ke chayan ka koi jabab nahi. wah....

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