कानून की लंबी और अंधी सुरंगों में न्याय का रास्ता ढूंढ़ने के लिए अब भी कोई आस का दीपक यदि जला रखा है, तो उसे खुद ही फूंक मारकर बुझा लीजिए। कानून को अपनी जेब में रखकर घूमने वालों की यह जीत और न्याय की आस में खुद को तन, मन और धन से झोंक देने वालों की हार का एक नमूना फिर सामने आया है। अन्याय की बर्फबारी में न्याय की सर्वोच्च संस्था एक बार फिर लाचारगी का फटा-पैबंद लगा कंबल औढ़े कोने में पड़ी है। वह दुहाई दे रही है कि निजी अभियोजकों और जांच एजेंसियों ने अलाव ही नहीं जलाया।
मध्यप्रदेश के भोपाल की शाहजहानाबाद जिला अदालत में 10 जुलाई 1996 का दिन हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो गया है। इसलिए नहीं कि अदालत परिसर में इस दिन खुलेआम गैंगवार हुआ था, बल्कि इसलिए कि इस खूनी खेल के सभी आरोपी सुप्रीम कोर्ट से बरी हो चुके हैं।
बरी क्यों हुए? यह जानना और भी जरूरी हो जाता है जबकि हाईकोर्ट 5 अप्रैल 2007 को आरोपी मुख्तार मलिक और आसिफ मामू को फांसी, रजी मलिक, मुन्ने पेंटर को उम्र कैद की सजा दे चुकी हो। इसकी बानगी सुप्रीम कोर्ट की बेचारगी में छिपी है- न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने अब अपने फैसले में कहा है कि इस्तगासा और जांच एजेंसी ही दोषी लोगों के सजा से बच जाने के जिम्मेदार हैं। ऐसा लगता है कि ये सभी अपराधियों से मिल गए हैं। ऐसी स्थिति में हमारे पास अभियुक्तों को बरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। न्यायाधीशों ने फिर स्पष्ट किया कि इस्तगासा इस हत्याकांड में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने में पूरी तरह विफल रहा है।
अफसोस... अफसोस है कि जांच की खामियों और निजी अभियोजकों के असहयोगात्मक रवैये के कारण ही न्याय के मंदिर में दिन-दहाड़े तीन व्यक्तियों की हत्या करने वाले सजा के चंगुल से बच रहे हैं। (सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अंश)
मीडिया रहा ‘संजय’ के भरोसे
पूरे मामले को आरोपियों के वकील के हवाले से प्रदेश और राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने शान से छापा- गैंगवार के आरोपी बरी...। जैसे उन्हें भारत रत्न मिला हो। आरोपियों के वकील ने बताया कि किस तरह हाईकोर्ट ने फांसी और उम्रकैद दे दी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर, ऐतिहासिक फैसला दिया है। किसी ने यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर हाईकोर्ट का फैसला पलटने की नौबत क्यों आई? इस मामले में सिर्फ नईदुनिया का एंगल काबिल-ए-तारीफ है। यहां अनूप भटनागर ने खबर का फोकस ही इस पर रखा है कि क्यों सुप्रीम कोर्ट को फैसला बदलना पड़ा। आखिर क्यों न्याय की इस अंतिम सीढ़ी को अफसोस जताना पड़ा? जिन निजी अभियोजकों की मिलीभगत से आरोपी बरी हुए, उन्हें यहां कतई जगह नहीं दी गई है। ऐसे संगीन मौकों पर अपना मुंह शतुर्मुर्गों की तरह रेत में छिपा लेने से मीडिया को बचना होगा, भले ही चुनाव की आंधी क्यों न चल रही हो।
बहरहाल, इस फैसले ने भले ही अनजाने में ही सही लेकिन यह तो बता ही दिया है कि कानून की सुरंग से होकर न्याय की मंजिल पाने में देर तो है ही अंधेर भी है।
3 comments:
हां भाई बात तो पते की है। आज के दौर में जब अन्याय की बर्फबारी हो रही हो तो न्याय की मूर्ति का ठिठुरना लाजिमी है। बढि़या!
Sahi kaha... Shabd aur Wakya ko aap Sui aur Dhage jaisa pirote ho.
Sabse pahle Unko saja dena chahiye jinke kaaran hatyare bari ho gaye. Hamare kaanun ke haath yahi chote ho jate he.
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