Saturday, October 18, 2008

सुजाता जी आप भावनाओं को समझें



'लिव इन' को लेकर ब्लॉग बहस जीवंत हो चुकी है। चलो इसी बहाने प्रबुद्धजन आगे तो आए। कुल मिलाकर आग जलते रहना चाहिए। बहस चालू आहे... आप भी आमंत्रित हैं...


अपनेराम मनोजजी का मानना है कि विचारों की जुगाली करना बुरी बात नहीं लेकिन सुजाता जी ने जिन तर्कों के साथ अपनी बात रखने का प्रयास किया है, निश्चित ही उसे बौद्धिक मंच पर उचित नहीं कहा जा सकता। सुहाग, करवाचौथ का महत्व पश्चिम की जूठन चाटने वाले वो लोग क्या समझेंगे जो हर रात के बाद अपने घर का रास्ता भूल जाते हैं। यदि उन्हें विचारों की जुगाली करने का इतना ही शौक है, तो चम्बल के बीहड़ों में बसे किसी गांव या फिर बस्तर के घने जंगलों के रहने वाले परिवारों के बीच कुछ समय बिताएं और फिर समझाने का प्रयास करें। हम तो भगवान से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ऐसे लोगों को सदबुद्धि प्रदान करे, जो लिव-इन रिलेशनशिप और करवा चौथ को एक ही तराजू पर तौलना चाहते हैं। और हां, सुजाता जी आप भावनाओं को समझें। दिल पर लेने या व्यक्तिगत बात करने से किसी की बात को दबाया नहीं जा सकता।
वाकई मनोजजी, सच को सलाम!

रंजना सिंह जी ने लिखा है- यह विडंबना ही है कि पश्चिम के आकाश से जबरदस्ती कुछ विचार के बादल, अपने नजरिए की बारिश हमारे ऊपर करते जाते हैं तो हम बजाय विरोध का छाता तानने के, उनके लिए लाल कालीन बिछाने लगते हैं। बेशक ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की उपयोगिता न्यूयार्क, लंदन में होगी जहां बच्चों और परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे के रिश्तों का महत्व बताने की जरूरत पड़े। अमेरिका में चौदह साल की उम्र तक पहुंचने वाली आधी से ज्यादा किशोरियां गर्भवती हो चुकी होती हैं, सोलह साल के बाद बेटा बाप के साथ नहीं, अलग रहता है। क्या ‘लिव इन’ के बहाने हम ऐसी दुनिया को खुद न्योतने की तैयारी नहीं कर रहे हैं? ऐसे दुर्दिन ईश्वर ना बताए, अगर ऐसा दिन आ गया है तो मानना चाहिए कि हमारे समाज के अंत की शुरूआत दस्तक दे रही है।

......आपकी इस लेख कि प्रशंशा को शब्द नही मेरे पास.लगता है एक एक शब्द के द्वारा जैसे मेरे विचारों को ही शब्द मिला है.......बहुत बहुत सही लिखा है आपने.लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग कि वास्तु बन कर रह जायेगी.समाज में परिवार के नाम पर उन्मुक्त यौन संत्रास और बच्चों का क्या होगा पता नही.इस से सिर्फ़ और सिर्फ़ भोगवादी संस्कृति का विकास होगा और पश्चिम के तरह टूटे बिखरे सामाजिक मोल्या में घुटता हुआ समाज.
रंजनाजी आपकी इन संवेदनाअों को सलाम!

सुरेश चंद्र गुप्ता जी लिखते हैं- यह विडंबना ही है कि पश्चिम के आकाश से जबरदस्ती कुछ विचार के बादल, अपने नजरिए की बारिश हमारे ऊपर करते जाते हैं तो हम बजाय विरोध का छाता तानने के, उनके लिए लाल कालीन बिछाने लगते हैं।और अपने रीति-रिवाजों को पानी पी कर कोसते हैं, उन्हें षड़यंत्र कहते हैं. यहाँ सब कुछ ग़लत है. बाहर सब कुछ सही है. विवाह ग़लत है. लिव-इन सही है. क्या हो गया है है इन लोगों को?
लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग की वस्तु बन कर रह जायेगी.समाज में परिवार के नाम पर उन्मुक्त यौन संत्रास और बच्चों का क्या होगा पता नही. इस से सिर्फ़ और सिर्फ़ भोगवादी संस्कृति का विकास होगा और पश्चिम के तरह टूटे बिखरे सामाजिक मूल्यों में घुटता हुआ समाज.बिल्कुल सही बात है. मैं पूरी तरह सहमत हूँ इस विचार से.

इन्होंने अपकी पहचान नहीं बताई है लेकिन अपेक्षा रखता हूं कि अगली टिप्पणी में भी इतना ही दमदार पक्ष रखेंगी। pinkshe ने कहा है कि - महेश जी मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूं। मैं खुद भी लिव इन रिलेशनशिप को सही नहीं मानती। मेरा मानना है कि इस तरह के रिश‍ते से केवल पुरुषों को ही फायदा पहुंचाते हैं। समाज में पहले ही विवाहेतर संबंधों की आंधी ने न जाने कितनी ही विवाहिताओं की जिंदगी को तबाह किया है और अब भी कर रही है ऐसे में लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा समाज को तोड़ने की कोशिश कर रही है। सुजाता जी से मैं यही कहना चाहूंगी कि एक बार आप अपनी सोच को किनारे कर इस पूरे मुददे पर दोबारा विचार करें और यह सोचें कि ऐसे रिशते कुछ महिलाओं के लिए जीवन भर की ञासदी बन जाते हैं। आप ऐसा कयों सोच रही हैं कि महेश जी ने महिलाओं को दो भागों में बांट दिया है- एक मंदिर जाने वाला और दूसरा पब जाने वाला। यह उदाहरण माञ है।

डॉ प्रवीण चोपड़ा ने लिखा है - मेरी हिंदी तो बस मैट्रिक स्टैंडर्ड की ही है लेकिन मैं आप की इस पोस्ट और पिछली पोस्ट पर लिखी काफी बातें समझ गया हूं और जो कुछ भी समझा है उन से मैं पूरी तरह से सहमत हूं। वैसे आपने लिखा है कि घाटा तो औरत को ही है...लेकिन मैं समझता हूं कि इस तरह के अरेंजमैंट्स में आदमी भी कहां चैन की नींद सो पाता है....धोबी वाली कहावत में न घर न घाट के रहने वाली बात उस की हो जाती है......एक बात आदमी इन चक्करों में पड़ जाये तो बस चक्रव्यूह में फंसने वाली ही बात है। एक बात इमानदारी से कह रहा हूं कि मैं अकसर बढ़िया सी हिंदी लिखी जब देखता हूं तो डर सा जाता हूं.....लेकिन फिर पढ़ने की कोशिश करता हूं । आप की बात सही है कि पश्चिम की सभ्यता कुछ ज़्यादा ही हावी होती जा रही है। और इन सब की बारिश में लाल कालीन बिछाने वाली बात तो बिलकुल सही कही।

अम्बरीनजी के कमेंट भी गौर फरमाइए- Hey! Sujata Dont react so much....What he wrote was just a perspective. No where in his blog he said there are just these two types of women. He is just comparing two of the many facets. Infact I just loved it. Infact we all did. Don't take it personally.
रचनाजी के मुताबिक - " लिव इन रिलेशनशिप को ले कर महारास्ट्र सरकार के फैसले से सबको आपति हुई ।इसलिये इसको वूमन सेल मे भेजने का निर्णय लिया गया ." एक औरत के खिलाफ दूसरी "औरत की थीयोरी को फिर ऊपर लाया गयालिव इन रिलेशनशिप वाली बात को महिला आयोग को भेज दिया गया हैं क्युकी "स्त्री विरोधी " बता दिया गया हैं । कितना आसन हैं हर बात को स्त्री विरोधी बता देना और ख़ुद स्त्रियाँ ही ये कर रही हैं । क्योकि वास्तव मे ये फैसला पत्नी विरोधी नहीं " पुरूष विरोधी " था । कोई भी पुरूष विरोधी बात इस देश को मान्य नहीं हैं ।पत्नी को समझाया गया की इस तरह तो आप का अधिकार बंट जायेगा ,समाज को समझाया गया की अनेतिकता बढ़ जाएगी ।एक पत्नी के लिये केवल पत्नी होना और सामजिक और कानूनी रूप से सुरक्षित रहना क्या इतना जरुरी हैं की वो अपने पति के दूसरे सम्बन्ध को स्वीकार करे जिसको समाज के समाने नहीं लाया जाता । ना जाने कितनी पत्निया ये अनैतिकता स्वीकार करती हैं आज भी कर रही हैं और इन मे वो नारियां भी हैं तो पढ़ी लिखी हैं और आर्थिक रूप से स्वंतंत्र हैं । क्यों कर रही हैं ?? जिस मानसिक यंत्रणा से वो गुज़रती हैं क्युकी समाज { दोनों तरफ़ के परिवार , मित्र } उनको यही बताता हैं " तुम कानूनी रूप से सुरक्षित हो , वो पत्नी नहीं हैं " wओ वह बहुत भयंकर होती हैं । एक बार अगर उसको अपने पति पर शक हो जाता हैं जो निर्मूल नहीं निकलता हैं तो उसकी बाकी की साड़ी वैवाहिक जिंदगी पति की जासूसी करने मे ही बीत जाती हैं पर सब कुछ जान लेनी के बाद भी उसको खामोश को कर सही समय का इंतज़ार करने को कहा जाता हैं जब पति स्वेच्छा से या सामाजिक दबाव से उसके साथ वापस रहता हैं और फिर जिन परिस्थितयों मे पुनेह वो पति के साथ दैहिक सम्बन्ध स्थापित करती हैं वो कितना वितृष्णा महसूस करती हैं ।शायद हमारा समाज अभी भी यही चाहता हैं की पुरूष को स्वतंत्रता रहे अनैतिक रिश्तो मे जीने की और उसका कोई सामजिक उत्तरदायित्व { जिमेदारी ना हो उस महिला के प्रति जिसके साथ उसने बिना शादी के सम्बन्ध बनाया । जिन महिला के ये सम्बन्ध बनते हैं वो अगर आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं तो वो शायद ही कानूनी रूप से इस सम्बन्ध से आर्थिक सुरक्षा का दावा करेगी । भावनात्मक रूप से वो पुरूष से जुड़ जाती हैं और फिर अपने को अलग नहीं कर पाती { और ये उनकी कमजोरी हैं जिस से उनको निकलना होगा क्युकी वो भावना मे बह कर केवल और केवल अपना नुक्सान करती हैं } ।सामाजिक दबाव के चलते पुरूष को तलाक भी नहीं मिलता क्युकी तलाक पति के मांगने पर कानून कम ही देता हैं और फिर अगर दोनों सम्बन्ध "चल ही रहे हैं " तो कौन पुरूष या स्त्री { पत्नी और सहचरी } अपना समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभाना चाहेगे ।जो महिला आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं उनके लिये ये कानून एक रौशनी की तरह था ताकि वो भी पत्नी की तरह कानूनी रूप से अपने को सुरक्षित समझे ।समाज के प्रति हमारा क्या उत्तरदायित्व क्या मात्र इतना ही हैं की हम ग़लत संबंधो पर चादर डालते रहे ? दबे ढंके जो लोग ग़लत संबंधो को बनाते हैं उनको बचाते रहे ?आज जब नई पीढी लडके , लड़कियों की तैयार हो रही हैं तो वो ज्यादा निरंकुश हो कर ऐसे संबंधो को जी रही हैं क्युकी उनको लगता हैं वो कम से सचाई से तो जी रहे हैं , पुरानी पीढी की तरह झूठ बोल कर तो नहीं रह रहे ।जो लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं वो वास्तव मे नई पीढी को संदेश दे रहे हैं छुप कर किया गया सब मान्य हैं और पुरूष को अधिकार है निरंकुश जीवन जीने का ।इस कानून के बन जाने से एक " responsibility " बन जाती उन लोगो की समाज के प्रति जो ऐसे संबंधो मे रहते हैं । फिर उनको जरुर लगता की अगर इस सम्बन्ध मे भी वही कानून होगा जो शादी मे तो वो शादी करना बेहतर समझते । शायद हमारा समाज ये नहीं चाहता की नयी पीढी जिम्मेदार बने ।इस कानून जिसको अगर सख्ती से लागू किया जाता तो शायदइस डर से कीलम्बे समय तह ऐसा रिश्ता रखने वालो को एक उत्तरदायित्व भी निभाना होगा जो सामाजिक हैं { collective responsibilty towards society in general }इन रिश्तो का बनना और पनपना कम हो जाता ।

चोखेर बाली परिवार के चोखे? बयान-
सुजाताजी के मुताबिक - आपका यह सोचना फिर से उसी मानसिकता के तहत है कि यह नही तो वही बात होगी । कि मैने करवा चौथ पर नाराज़गी दिखाई तो ज़रूर मै लिव इन की हिमायती हूँ । मेरी घोर आपत्ति केवल इस बात पर है कि आप पहले से ही परम्परा संकृति और न जाने क्या क्या को लेकर तरह तरह के डर पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और सहमत हूँ रचना जी से कि -शायद हमारा समाज ये नहीं चाहता की नयी पीढी जिम्मेदार बने ।सारा सवाल नियंत्रण का है । समाज को इंडीविजुअल पर पूरा नियंत्रण चाहिये , माता पिता को औलादों पर पति को पत्नी पर ....कोई किसी की समझदारी पर यकीन नही करता और अपने सिखाए पर ।यद्यपि जिस विषय पर आपने लिखा उस पर बहस करने का मेरा इरादा कतई नही केवल उस सोच को लक्ष्य बनाया था कि मै करवा चौथ और सुहाग की बात नही मानती तो आप उसका कैसे अर्थ यह करे लेते है कि लिव इन मे विश्वास है?खैर ,रंजना जी का कथन - लोग सोच नही पा रहे कि इन सब में स्त्री सिर्फ़ भोग कि वास्तु बन कर रह जायेगी.....भी साफ करता है कि स्त्री जाति है ही मूर्ख ,और आपका लेख भी यही दर्शाता है कि यहाँ एक वयस्क व्यक्ति सरकार बनाने की ज़िम्मेदारी तो ले सकता है पर अपने जीवन की ज़िम्मेदारी नही उठा सकता। तो फिर ऐसे मे हमें अपने बच्चों को ज़िम्मेदार बनने के बारे मे विचार करना चाहिये न कि किसी अज्ञात भविष्य का डर बिठाना चाहिये और प्राक्कल्पनाएँ गढनी चाहियें।मेरा मात्र विरोध है तो आपकी इस सोच से कि एक खास ढांचे मे न ढली स्त्री भ्रष्ट है ।

7 comments:

Anonymous said...
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मसिजीवी said...

वाह क्‍या वर्गीकरण है। पहले भी इस खांचाबद्ध सोच पर सवाल उठाया पर...


कुछ विचार हैं बाकी 'चोखेर परिवार' के विचार हैं, यह वर्गीकरण पंदिर-पब के वर्गीकरण से अलग तो नहीं ही है। समस्‍या करवाचौथ या गपड़चौथ की उतनी नहीं है जितनी सोच की इस खांचाबद्धता की है।

Manoj Pamar said...

महेश भाई, जिनके पैरों के नीचे जमीन नहीं होती उन्हें गिरने से तो भगवान भी नहीं बचा सकता। आपके विचार ठोस थे,तर्कसंगत थे इसलिए जो ...वालियां कुछ समय के लिए विचारों की जुगाली करने आई थी वे लगता है गहरी नींद सो गई है। खैर,भगवान इन ....वालियों को सदबुद्धि प्रदान करें। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है इसलिए सबको अपनी बात रखने का अधिकार है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हैं कि हम स्वच्छंद हो जाएं। शायद आपकी पोस्ट पर तीखी प्रतिक्रिया करने वाली ये ...वालियां बात तो बौद्धिक मंच और विचार की करती हैं लेकिन भारतीय परंपराओं व संस्कृति का इनके लिए कोई मोल नहीं है। हां,इनका सरोकार उस संस्कृति से अवश्य हो सकता है जो वातानुकूलित कक्षों में देर रात बियर-व्हीस्की की हलक में उतारने और सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाते हुए दुनिया को बदलने के हवाई किले बनाती हैं। वाकई कहने वाले ठीक ही कहते हैं कि औरत की पहली और आखिरी दुश्मन औरत ही है। इस वैचारिक द्वंद्व का अब तक का निचोड़ तो यही कहता है। इसलिए हे महेश, अपने वैचारिक पथ पर अडिग और अविचल होकर आगे बढ़ते रहे। रही बात इन ....वालियों की, तो इन्हें सिर्फ आग लगाना ही आता है।

Anonymous said...
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सुजाता said...

आपका इरादा केवल और केवल लुत्फ उठाने का है अन्यथा आप अपने शीर्षक मे मेरा नाम नही रखते , विचार को लक्ष्य बनाते व्यक्ति को नही ।
दूसरी बात ,
मनोज पर्मार के ..... वालियाँ वाले कमेंट पर आपकी कोई नाराज़गी या प्रतिक्रिया ज़ाहिर नही हुई इससे पता लगता है कि मेरा सोचना सही है कि आपके लिए कुछ बातें केवल ब्लॉग पर मनोरंजन के लिए हैं न कि किसी तरह की तार्किक बहस के लिए ।
आपने आज की पोस्ट -आरी को काटने के लिए सूत की तलवार - को पडःअने के लिए मुझे ई मेल भेजा था , शायद गलती से यह वाली पोस्ट नही देखी थी ,सो वह पहले देख ली और अफसोस हुआ आपकी मानसिकता पर ।ब्लॉग जगत मे हिट्स की मासिकता से उबरिये , यह आपकी नासमझी ही है ,हिन्दी ब्लॉग इस शैशवकालीन क्रीड़ा से ऊपर उठ परिपक्व होना चाहता है ।

सुजाता said...
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Unknown said...

लिव-इन रिलेशनशिप और करवा चौथ को एक ही तराजू पर तौलना ग़लत है.

हाँ, मैं पूरी तरह सहमत हूँ रंजना सिंह के इस विचार से.

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