Sunday, October 19, 2008

विदेशी कूड़े से मेरे देश की धरती को बंजर क्यों बनाते हो?



लिव इन v/s करवा चौथ : चौथी किस्त


लिव-इन पर बहस जारी है... दरअसल हमारा मूल विरोध ही उस पुरुष प्रधान मानसिकता को लेकर है जो महिलाअों का हक मार कर जबरन लिव-इन जैसे दलदल में फंसा रही है। इसकी आड़ में कुछ लोग विदेशी कूड़ा कल्चर को, सोना उगलने वाली धरती पर डंप कर, इसे बंजर बनाना चाहते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि तथाकथित नारीवाद के पैरोकार भी लिव-इन के हिमायती बने हुए हैं। इसी का विरोध है, बस।


लिव-इन के नकारात्मक पहलू में से एक पर गौर करें- ऐसे रिश्तों से अगर कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसका क्या होगा। क्योंकि यह रिश्ता ऐसा है कि इसमें कभी भी पति-पत्नि अलग हो सकते हैं। ऐसे में बच्चे के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा, जबकि सामान्य शादी में जिम्मेदारी तय होती है। दूसरा और महत्वपूर्ण मसला यह है कि- लिव-इन तात्कालिक उपचार है... शुरुआत से ही मानसिकता बना ली जाती है कि अलग होना है। यानी स्त्री के जीवन से खिलवाड़ के रास्ता पहले ही निकाल लिया गया है और इसे कांक्रीट का बनाने के प्रयास शुरू हो गए हैं।

इसका आशय यह कतई नहीं कि स्त्री को हर हाल में पुरुष के साथ ही रहना होगा। वह जीवन जिए, लेकिन पुरुष की लिव-इन बैसाखी की जरूरत उसे क्यों पड़ना चाहिए? नारी तो शक्ति स्वरूपा है, और परिवार उसका संबल। पारिवारिक ढांचे की नींव में लिव-इन का मट्ठा डालने वालों को समय रहते पहचानना ही होगा।


इनकी रगों में है रवानी
सुजाताजी की टिप्पणी (अगर मैं मंदिर नहीं जाती तो...) पर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने लिखा है-
आदरणीया सुजाता जी, मेरे खयाल से आपकी प्रतिक्रियात्मक पोस्ट कदाचित्‌ मूल पोस्ट को जल्‍दबाजी में पढ़ने के कारण इतनी तल्ख हो गयी है। आप द्वारा दी गयी लिंक से ही मैं पहली बार इस ब्लॉग पर गया। उस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगा कि लेखक की मान्यता वैसी है जैसा आपने समझ लिया। करवा चौथ को पूरे मनोयोग से व्रत करने वाली ‘परम्परा-प्रिय सुहागिनों’ और लिव-इन सम्बन्धों में सहज रहने वाली ‘अविवाहित आधुनिकाओं’ के बीच जो कण्ट्रास्ट है, सिर्फ़ उसी को यहाँ रेखांकित किया गया है। इन दो paradigms के इतर भी एक बहुत बड़ी दुनिया है जिसको नकारा नहीं गया है। जबकि आप का गुस्सा इसी शंका से फूट पड़ा है।यहाँ लेखक ने दो ‘ध्रुवों’ के बीच तुलना दिखाने की कोशिश की है जिसके बीच में एक बहुत बड़ा मध्यमार्ग भी पड़ता है। इससे लेखक ने कहीं इन्कार नहीं किया है, लेकिन आपने यह समझ लिया कि लेखक ने पूरे नारी समाज को इन्‍ही दो श्रेणियों में बाँट दिया है। खेद के साथ कहना चाहूंगा कि इसी शंकालु सोच के कारण आज का तथाकथित नारीवाद हँसी का पात्र बन रहा है; जो वस्तुतः ‘पुरुषविरोधवाद’ से बाहर नहीं निकल पा रहा है।


सुजाता जी ये आप ही के शब्द हैं ना?
ज्ञान
जी ने बड़े ही ज्ञान की बात कही है-
सुजाता जी, मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ, टिप्पणी करने से।जब कोई अपनी पत्नी (या कथित अन्दर-रहने वाली) से कहे कि-मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ,-इसके बावज़ूद अगर तुमने बेवफ़ाई की तो,-मैं तुम्हें जान से मार दूँगा!तो वो क्या करेगी?
A. खुश होगी कि वह उसे बहुत चाहता है।B. चिंतित होगी कि इसे कोई गलतफहमी तो नहीं?C. पुलिस में जाकर FIR करवा देगी, अपनी सुरक्षा के लिये!

उत्तर देने में सुविधा हो इसलिये यदि कोई लिखता है

कि^^करवा चौथ के आते ही हर विवाहिता के मन में एक अजीब सी हलचल होने लगती है।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, अविवाहिता के मन में ज़रूर हलचल नहीं होती?^^नवविवाहिताओं को तो जैसे बस इंतजार रहता है शरमाकर बादलों के घूंघट में छिपे चंद्रमा का सुंदर मुखड़ा देखने का।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, जो नहीं शरमातीं वे ज़रूर भरी दोपहरी में सूरज का चेहरा देखतीं हैं
^^पूजा करने के बाद हर सुहागन जी भर के खाती है।**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, हर सुहागन बाकी दिन ज़रूर जी भर के नहीं खातीं?
^^वो मंदिर नहीं पब में जाती है**तो क्या इसका मतलब होता है कि लिखने वाले की मान्यता है, जो मन्दिर नही जातीं वे ज़रूर पब जाती हैं?

आप ही के शब्द हैं ना? अगर आपकी ऐसी (**)सोच है तो निहायत अफसोसनाक है और निन्दनीय भी ।अगर उपरोक्त (**)विचारों वाले बुद्धि के अनुसार कहना चाहूँ तो यह आग लगाने वाली भाषा और सोच है ।बुद्द्धिवान जनों को इससे बचना चाहिये !!अभी तक तो आपको बुद्द्धिवान मान रहा हूँ, लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपकी भाषा भी...

9 comments:

आलोक साहिल said...

SHURUAATI KISHYEIN TO MAINE NAHIN PADHIN LEKIN AAJ PADHA TO KAFI ACHHA LAGA KHASKAR WO NAJARIYA JISKE TAHAT AAPNE LIKHA HAI.
ALOK SINGH "SAHIL"

Avinash Das said...

सरजी, आप बात को समझ नहीं रहे। लिव-इन का कानून बन जाने के बाद रिश्तों की दोनों ईकाइयों की जि़म्मेदारियां तय हो जाएंगी। यानी अगर आप अपने साथी के साथ लिव-इन रिलेशन रखते हैं, तो होने वाले बच्चे के आप दोनों ही कानूनी रूप से माता-पिता होंगे। जबकि अभी ये नहीं है। अभी के रूप में भारतीय समाज में एक स्त्री विरोधी रूपक का जबर्दस्त इस्तेमाल होता है - रखैल। कानून बन जाने के बाद आप रखैल रखने के हकदार नहीं होंगे। बहरहाल, अगर आपको लगता है कि महज सिंदूर, फेरों के साथ ही कोई बंधन अटूट हो जाता है, तो यह आपका भ्रम है। किसी भी रिश्ते में विश्वास बड़ी चीज़ है - चाहे वो पारंपरिक विवाह हो या लिव-इन रिलेशनशिप। धन्यवाद।

सुजाता said...

लिव-इन के नकारात्मक पहलू में से एक पर गौर करें- ऐसे रिश्तों से अगर कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसका क्या होगा।
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बच्चा जन्म लेता नही उसे जन्म दिया जाता है और यह काम वे कर रहे होते हैं जिन्होंने पहले ही एक बड़ा साहस का और ज़िम्मेदारी भरा काम किया होता है।आपको अविनाश जी की टिप्पणी ध्यान से पढनी चाहिये।

आपने कहा -
यानी स्त्री के जीवन से खिलवाड़ के रास्ता पहले ही निकाल लिया गया है....


मुझे हैरानी है इस तरह के फैसलों मे स्त्री शोषण की चिंता भी सबसे पहले पुरुषों को ही होने लगती है।ज़ाहिर है शोषण भी पुरुष ही करेगा यह भी आपकी बात मे निहित है।आप जैसे सजग लोगों के होते आपके आस पास तो ऐसा शोषण नही ही होगा मुझे यकीन है।और कानून बन जाने से लिव इन रिश्तों मे रहने वाले भी उन हकों और सुरक्षा के दायरे मे आ जायेंगे जिनमे विवाहित अभी हैं।
वर्ड वेरिफिकेशन हटा सकें तो टिप्पणी करने वाले पर उपकार होगा !

रंजना said...

अच्छी सच्ची बातें निःसंकोच पूरी इमानदारी से कहते जाइये,जो पहले से ही किसी निश्चित सोच के तहत अपनी धारणा बना चुके हैं और केवल कहने चिल्लाने में विश्वास करते हैं,वे नही सुनेंगे और कुछ मानने की बात तो छोड़ ही दीजिये.लेकिन जो संस्कार संस्कृति के अच्छी बातों से मतलब रखतें हैं ,उनपर हो रहे कुठाराघात से दुखी रहते हैं,वे अवश्य आपकी बात सुनेंगे और आपसे इत्तिफाक रखेंगे.प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति के फेर में न पड़िये.कुछ लोगों को केवल बहस में उलझे रहने में आनंद आता है.ऐसे चक्करों में न पड़ें.सुंदर सार्थक लिखें.हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं. .

Unknown said...

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thank you dear
take care..

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

वर्ड वेरिफिकेशन हटा सकें तो टिप्पणी करने वाले पर उपकार होगा !


लिव इन भी शायद अपनी जिम्मेदारियों से भागने का ही एक चोर रास्ता है ........हम अक्सर अपनी चोरी-चमारी को कोई खुबसूरत-सा नाम दे दिया करते हैं....मगर यकीनन लिव इन इस समाज की बची-खुची कसर भी निकाल देने वाला है .....!!आगे-आगे देखिये....होता है क्या..!!

Unknown said...

@लिव-इन का कानून बन जाने के बाद रिश्तों की दोनों ईकाइयों की जि़म्मेदारियां तय हो जाएंगी।
जिम्मेदारी महसूस करने से होती है कानून बनने से नहीं. देश में कितने कानून हैं पर कितने लोग अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? मेरे विचार में लिव-इन जिम्मेदारी से भागने का एक रास्ता है.

@अच्छी सच्ची बातें निःसंकोच पूरी इमानदारी से कहते जाइये,जो पहले से ही किसी निश्चित सोच के तहत अपनी धारणा बना चुके हैं और केवल कहने चिल्लाने में विश्वास करते हैं,वे नही सुनेंगे और कुछ मानने की बात तो छोड़ ही दीजिये.
बहुत अच्छी सोच है. हम कहें तो पूरी इमानदारी, दूसरे कहें तो केवल कहना और चिल्लाना.

@आपको अविनाश जी की टिप्पणी ध्यान से पढनी चाहिये। ........ मुझे हैरानी है इस तरह के फैसलों मे स्त्री शोषण की चिंता भी सबसे पहले पुरुषों को ही होने लगती है।
सही बात है.

eklavya said...

मालूम है हम लोगो की समस्या क्या है. यह की हम लोग पश्चिम की बराबरी भी करना चाहते हैं और मन मैं असमंजस भी है की क्या हम सही कर रहे हैं क्योंकि हम खुद पर यकीन करना नहीं जानते और करना भी नही चाहते क्योंकि हमारी कमी की पोलपट्टि जमाने के सामने आ जाएगी और हम जमाने के सामने बेपर्दा हो जाएँगे आप लोग शायद इस अनुभव से गुज़रे होंगे की जब हम किसी के घर भूखे चले . हो और भूख लगने पर भी कहते हैं नहीं जी खा कर ही आ रहे हैं क्योंकि अगर हम कहेंगे हम भूखे हैं तो हमारी नाक काट जाएगी और हमारी नाक तो पेट की भूख से भी बड़ी है हम लोग ना जाने क्यों . को एक हब्बा समझते है जबकि यह एक नॅचुरल डिमॅंड है कैसी बिडमबना है की लोग कैसे रहना चाहते है इसे वो खुद ही तय नहीं कर सकते समाज बीच मैं जो खड़ा है मुह मैं राम बगल मैं छुरी बाले इस समाज से लोग कितना डरते हैं की जो सच है मान मैं जिसकी चाह है उसे भी स्वीकार करने से डरते हैन.लोग खुद ही भरम मैं जी रहे है क्या समाज है हमारा प्यार करने बालो पर तो बंदिश है लेकिन मंदिर मैं जाकर राधे शयाम की की पूजा करते हैं उनके प्यार की दुहाई देते नहीं थक्ते.येह हमारी मानसिक कमी नही तो और क्या है हम दोहरे मानदंडो मैं जी रहे है. मन मैं लिव इन को चाहते है लेकिन बाहर से विरोध करते हैं यकीन मानिए हमारी प्राब्लम वो लोग नहीं है जो लिव इन मैं रहते है हमारी प्राब्लम है की हम ऐसा नहीं कर पा रहे है फिर वोही कहावत की अंगूर खट्टे हैं.

Anonymous said...

sir
un logo ko kya kehnge aap jo patni hone ke bavjud bhi anya aurto ke phiraq mein rehte hai? mein live-in paksdhar nahe lekin jhoote karvachooth bhi muje pasand nahe. thoda vistar se aur likhe aap.

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